रत्नागिरी (महाराष्ट्र) जिले में दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर पार्क बन रहा है। इतने बड़े प्रोजेक्ट के मामले में जल्दबाजी न कर हम आने वाली विपदा को न्योता देने से बचें तो अच्छा होगा। चेरनोबिल व भोपाल हादसे के दुष्परिणाम से सब अच्छी तरह वाकिफ हैं इसलिए सावधान रहना जरूरी है। परमाणु ऊर्जा से जुड़े विभिन्न विवादास्पद मामलों में एक अहम मामला है विकिरण का। दुर्घटना की स्थिति में परमाणु रिएक्टर के विकिरण का असर अंतहीन होता है। इससे मानव जीवन की अनुवांशिकी पर बहुत बुरा व दूरगामी असर पड़ता है। क्या मानव जीवन और पर्यावरण प्रदूषण की कीमत पर परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने की जिद का कोई और ज्यादा सुरक्षित विकल्प नहीं ढूंढ सकता। वियना और पेरिस सम्मेलनों में परमाणु दुर्घटनाओं की क्षतिपूर्ति की अवधि 30 वर्ष तक तय की गई थी पर हमारे देश में प्रस्तावित विधेयक में हर्जाने की अवधि महज 10 वर्ष रखी गयी है। सच यह है कि हमारी न्यायपालिका या नौकरशाही परमाणु दुर्घटनाओं में होने वाली क्षति का आकलन और क्षतिपूर्ति का निर्धारण कर ही नहीं सकती। यह काम वैज्ञानिकों की ज्यूरी का है क्योंकि इन दुर्घटनाओं में लम्बे समय तक होने वाली क्षति और दावों को महज मौतों के आधार पर तय नहीं किया जा सकता। इन दुर्घटनाओं का मामला कितना जटिल है, इसको इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि प्लोटोनियम 239 की हाफ लाइफ 24100 वर्ष मानी जाती है जबकि इसी की 238 किस्म वाली धातु की हाफ लाइफ सिर्फ 86 वर्ष होती है। चूंकि हाफ लाइफ एक सेकेंड के कुछ अंश से लेकर हजारों वर्षो तक हो सकती है अत: खतरे विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक र्चचा का विषय हैं। वर्ष 1986 में रूस के चेरनोबिल की घटना इसका सुबूत है कि इन दुर्घटनाओं का हवा, पानी, पशु-पक्षियों तथा जमीन पर कितना घातक और दूरगामी असर पड़ा। दूध, मक्खन, हवा, पानी, घास, भोजन, मछली, मांस आदि तक रेडियोधर्मी जहर से भर गये थे, जिसका नतीजा गंभीर शारीरिक विकृति और मौतों के रूप में सामने आया। परमाणु दुर्घटनाओं का इतिहास बताता है कि इसकी वजह तकनीकी खराबी ही रही है। भला इसी में है कि सरकार इस प्रस्ताव पर पुनर्विचार करे। मामला सिर्फ अमेरिका का ही नहीं, फ्रांस भी हमें अपना माल अपनी शतोर्ं पर दे रहा है जबकि ब्रिटेन ने उसे साफ-साफ मना कर दिया है। यह कितने आश्र्चय की बात है कि फ्रांस की जिस कंपनी से यह सौदा हो रहा है, वह दिवालिया होने की स्थिति में बताई जाती है। हमारे देश में 20 से भी अधिक परमाणु संस्थानों में काम कर रहे लोग उच्च विकिरण के प्रभावों की चपेट में आ चुके हैं। मीडिया द्वारा इसके गम्भीर प्रभाव बताने पर भी परमाणु ऊर्जा विभाग लगातार ऐसे हादसे खारिज करता रहा है। भारत के इन परमाणु संस्थानों के आसपास की आबादी में ल्यूकीमिया हड्डी व स्किन कैंसर के केस चौंकाने वाले हैं, पर कोई सुनने वाला नहीं है। खनन से लेकर यूरेनियम बनाने तक परमाणु गतिविधियों को हर कदम बेहद खतरनाक होता है। इतना ही इन संयत्रों की आयु करीब 50 वर्ष होती है जबकि समूचा ढांचा, उपकरण और परमाणु कचरा सौ वर्ष से भी अधिक समय तक मनुष्य के लिए खतरा बना रहता है.
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