Sunday, March 27, 2011

हकीकत से परे था 78 हजार मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य


योजना आयोग का मानना है कि मौजूदा 11वीं पंचवर्षीय योजना में यदि देश में 52 हजार मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन क्षमता का भी विस्तार कर लिया जाता है तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने कहा कि योजना की शुरुआत में बिजली उत्पादन के काफी ऊंचे लक्ष्य तय कर दिए गए थे। योजनावधि के दौरान 78 हजार मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया, जो हकीकत से परे था। आहलूवालिया ने बताया कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के आरंभ में 78 हजार मेगावाट का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। मगर दो साल बाद इसे कम करके 62 हजार मेगावाट कर दिया गया था और अब यदि देश 52 हजार मेगावाट के लक्ष्य को हासिल कर लेता है तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। जीडीपी में वृद्धि के बावजूद असमानता में बढ़ोतरी पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि ताप विद्युत उत्पादन के लिए कोयले की उपलब्धता इस क्षेत्र के लिए निर्णायक है। भारत फिलहाल 4 करोड़ टन कोयले का आयात करता है,जो कि भविष्य में बढ़कर 25 करोड़ टन हो सकता है।
सरकारी कंपनियों ने अगले वित्त वर्ष में 26,040 करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा : सार्वजनिक क्षेत्र की तीन बिजली उत्पादक कंपनियों (एनटीपीसी, एनएचपीसी और सतलुज जलविद्युत निगम) ने अगले वित्त वर्ष में 26,040 करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है। एनटीपीसी और ऊर्जा मंत्रालय के बीच अगले वित्त वर्ष में विद्युत उत्पादन के लिए हुए करार में कंपनी ने 23,500 करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है। चालू वित्त वर्ष में यह 22,600 करोड़ यूनिट था। कंपनी की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि उसकी कुल उत्पादन क्षमता 33,694 मेगावाट की है। वर्ष के दौरान कंपनी की खुद तथा संयुक्त उद्यमों के जरिए 4,320 मेगावाट की अतिरिक्त क्षमता जोड़ने की योजना है। वहीं, एनएचपीसी ने अगले वित्त वर्ष में 1,850 करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है। पिछले वित्त वर्ष में कंपनी का बिजली उत्पादन 1,800 करोड़ यूनिट रहा था। ऊर्जा मंत्रालय के साथ किए गए करार के तहत कंपनी ने आश्वासन दिया है कि वह 2011-12 में वह निम्मो बाजगो, चतक, उड़ी-दो (जम्मू-कश्मीर) और चमेरा-तीन (हिमाचल प्रदेश) परियोजनाओं को पूरा करेगी। वहीं, सतलुज जलविद्युत निगम लिमिटेड ने अलग से जारी बयान में कहा कि उसका अगले वित्त वर्ष में 690 करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन का लक्ष्य है। कंपनी ने 412 मेगावाट के रामपुर हाइड्रो इलेक्टि्रक बिजली परियोजना का काम शुरू करने की योजना बनाई है। यह परियोजना सितंबर, 2013 तक पूरी होनी है।


Saturday, March 26, 2011

परमाणु ऊर्जा से न तलाशें विनाश की राह


कुछ सवाल काफी अहम हैं- क्या भारत के परमाणु प्लांट किसी भी तरह खतरे में हैं? जापान जैसे हादसे का सामना करने के लिए भारत तैयार है? क्या नए चरण के परमाणु विस्तार में भूकम्प प्रभावित इलाकों का ख्याल रखा गया है? क्या संयंत्र बिठाने से पहले विदेशी कम्पनियों ने अपने यहां संयंत्र की पूरी जांच कर ली है? न्यूक्लियर हादसे के लिए कौन जिम्मेदार होगा और मुआवज़ा राशि कम क्यों रखी गई है
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत जैसे विकासशील और भारी आबादी वाले मुल्क को ऊर्जा की सख्त ज़रूरत है। दुनिया भर के ऊर्जा उत्पादन सूचकांक इस बात की पुष्टि भी करते हैं कि भारत को अपने बूते पर चलने के लिए काफी ऊर्जा चाहिए। दुनिया भर के मुल्कों से अपनी तुलना करें तो हमारे यहां प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत काफी कम है। इसलिए जब हम चहुंमुखी विकास की बात करते हैं, खासकर आर्थिक विकास की तो महसूस होता है कि ऊर्जा से इसका सीधा ताल्लुक है। यह भी सच है कि भारत में प्रति इकाई ऊर्जा उत्पादन में ज्यादा खर्च करना पड़ता है। इसलिए महंगी ऊर्जा से बचने के लिए हमारे पास दो ही रास्ते हैं। पहला ऊर्जा की बर्बादी से बचा जाए और दूसरा परमाणु रिएक्टरों के जरिये असीमित ऊर्जा का उत्पादन किया जाए। हां, दूसरे मसले में कई पेचीदगियां जरूर हैं लेकिन इससे हमारी जरूरत से ज्यादा ऊर्जा का उत्पादन हो जाएगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि आज के दौर में जब जीवाश्म ईधन में काफी कमी आ गई है, परमाणु ऊर्जा को नकारा नहीं जा सकता है।
मुखालफत क्यों कर रहे हैं लोग
बहरहाल इन दिनों देशभर में पावर प्रोजेक्टों का विरोध जारी है। आंध्र प्रदेश के सोमपेटा में स्थित पावर प्लांट के खिलाफ स्थानीय लोगों ने विरोध किया, पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी और दो लोगों की मौत हो गई। कोंकण इलाके में, जो अल्फांसो आम के लिए मशहूर है, 1200 मेगावाट का र्थमल पावर प्लांट बिठाए जाने के प्रस्ताव पर विरोध जारी है। छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह का विरोध हो रहा है। अरुणाचल प्रदेश में भी दस पावर प्लांट अटके हुए हैं। और अब इन सबमें एक नया नाम जुड़ा है जैतापुर न्यूक्लियर पावर प्लांट का। सरकार इन सब विरोधों को रोकने के लिए दमनात्मक कार्रवाई शुरू कर चुकी है लेकिन यह समझना जरूरी है कि आखिर विकास के पैमाने तय करने वाले इन पावर प्रोजेक्ट से आम इंसान जुड़ क्यों नहीं रहा है?
विनाश का रास्ता है मुख्य वजह
दरअसल, आम इंसान की समझ में यह बात आ गई है कि ज्यादा बड़े पावर प्लांट विनाश के रास्ते हैं। खासकर, देश भर में बिना किसी खास सुरक्षा तैयारियों के कई न्यूक्लियर पावर प्लांट को बिठाने का प्रस्ताव है। हालांकि न तो इसके लिए आम लोगों से राय ली गई और न ही वैज्ञानिकों की। जैतापुर का इलाका खेती के लिए मशहूर है। यहां पावर प्लांट लगे तो आम की खेती पूरी तरह से चपट हो जाएगी। इलाके की खेती-किसानी पर भी असर पड़ेगा क्योंकि नदियों में प्लांट का कूड़ा-कचरा बहेगा। वैसे इस इलाके में तीन बड़ी नदियां हैं। इसलिए यहां सिंचाई की समस्या साल भर नहीं होती है। इसके अलावा जैतापुर भूकम्प प्रभावित इलाकों में गिना जाता है। हाल ही में जापान में आई आपदा से भी हमारी सरकार को कुछ सीखने की जरूरत है। न्यूक्लियर पावर प्लांट से निकले रेडिएशन लाखों सालों तक मौजूद रहते हैं। तभी तो जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में अमेरिका के गिराए गए परमाणु बमों का असर आज भी बाकी है। ऊपर से अब भूकम्प, सुनामी के बाद रिएक्टर में विस्फोट से रेडिएशन का खतरा काफी बढ़ गया है।
एक नहीं, अनेक हैं खतरे
दरअसल, परमाणु ईधन में इस्तेमाल होने वाले तत्व यूरेनियम- 235, प्लूटोनियम, ट्रिटियम समस्थानिक रहते हैं, जिनकी अर्ध आयु लाखों साल की होती है। इसलिए इनके क्षय होने में लाखों साल लग जाते हैं। तब तक ये तत्व पर्यावरण के किसी भी अवयव के सम्पर्क में आकर जानलेवा प्रदूषण फैलाते हैं। रेडिएशन का प्रभाव इतना व्यापक होता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी लोग इसकी चपेट में आते रहते हैं। यहां तक कि प्रभावित शख्स के गुणसूत्र में भी विसंगतियां आ जाती हैं। इसके अलावा त्वचा कैंसर से लेकर कई अंगों का विफल हो जाना जैसी बीमारियां हैं।
लोगों को भरोसे में लेना जरूरी
ऐसे में भारत के दृष्टिकोण से कुछ सवाल काफी अहम हैं- क्या भारत के परमाणु प्लांट किसी भी तरह खतरे में हैं? जिस तरह के हादसे जापान में हुए, उस तरह की चुनौती का सामना करने के लिए भारत तैयार हैं? क्या नए चरण के परमाणु विस्तार में भूकम्प प्रभावित इलाकों का ख्याल रखा गया है? क्या संयंत्र बिठाने से पहले विदेशी कम्पनियों ने अपने यहां संयंत्र की पूरी जांच कर ली है? किसी भी तरह के न्यूक्लियर हादसे के लिए कौन जिम्मेदार होगा और आखिरी सवाल मुआवज़ा राशि कम क्यों रखी गई है? ये कुछ अहम सवाल हैं, जिनके जबाव आम लोगों को दिया जाना जरूरी है। लेकिन अपने यहां गैर-सामरिक परमाणु मसले को भी गोपनीयता कानून के दायरे में रखा जाता है। इससे भी काफी भ्रम फैला है। हालांकि इसके मायने ये नहीं हैं कि परमाणु ऊर्जा को नकार दिया जाए। यह तो साफ है कि मौजूदा विश्व में परमाणु ऊर्जा सर्वसुलभ और प्रचुर है लेकिन जरूरी यह है कि इससे विनाश के रास्ते नहीं तलाशे जाएं। चाहे वे इंसानों की हरकत से हों, या प्राकृतिक आपदा से।


बहुतेरे हैं सुरक्षित विकल्प


ग्यारहवीं पं चवर्षीय योजना के दौरान सौर ऊर्जा से 50 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया है। परन्तु, सितम्बर 2010 तक आठ मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता ही स्थापित की जा सकी है। पिछले साल सरकार ने सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए एक महत्त्वाकांक्षी जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सोलर मिशन शुरू किया है। इसके तहत सन् 2022 तक सौर ऊर्जा से 20 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है, जो परमाणु ऊर्जा के लिए सन् 2020 के लक्ष्य के बराबर है। कहने का मतलब यह कि सौर ऊर्जा की सम्भावना किसी भी तरह से परमाणु ऊर्जा से कम नहीं है जबकि जोखिम न के बराबर है '
हम अपने परमाणु प्रतिष्ठानों की सुरक्षा का कितना भी दम क्यों न भर लें, अंदर से सभी जानते हैं कि आपदा प्रबंधन हमारे देश की सबसे कमजोर कड़ी है। हर साल बाढ़ से होने वाली तबाही और भीषण अग्निकांडों से होने वाला विकट नुकसान इसका ठोस सबूत है। तकनीकी रूप से उन्नत और आपदा प्रबंधन के प्रति बेहद जागरूक होने के बावजूद जापान में परमाणु दुर्घटना से जो भयंकर तबाही हुई, उसे देखकर पूरी दुनिया हैरत में है। खासतौर से हिंदुस्तान में परमाणु ऊर्जा की सार्थकता, उपयोगिता और अनुकूलता पर बहस छिड़ गई है। मुद्दा यह है कि क्या हम देशवासियों के जीवन और राष्ट्र की सम्पत्ति को इतने बड़े जोखिम में डालकर परमाणु ऊर्जा के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहेंगे। महाराष्ट्र के जैतापुर में प्रस्तावित विशाल परमाणु बिजलीघर पर विरोध के स्वर तेज और तीखे हो गए हैं।
गलत ट्रैक पर सरकारी धारणा
आम तौर पर, और खास कर सरकारी क्षेत्रों में, यह माना जाता रहा है कि विकास के लिए देश को आवश्यक बिजली उपलब्ध कराने के लिए परमाणु ऊर्जा का सहारा लेना जरूरी होगा। इसीलिए तय किया गया है कि सन् 2020 तक परमाणु ऊर्जा से 20 हजार मेगावाट बिजली बनाई जाए और अंतिम लक्ष्य यह है कि सन् 2050 में देश की कुल बिजली आपूर्ति में परमाणु ऊर्जा का योगदान 25 प्रतिशत हो जबकि फिलहाल 4,780 मेगावाट का उत्पादन करके यह मात्र 2.7 प्रतिशत है। लेकिन परमाणु ऊर्जा को ही आखिरी विकल्प मानने की धारणा गलत है।
अक्षय ऊर्जा स्रेतों पर भी नजर डालें
वर्तमान में देश के कुल बिजली उत्पादन में तापीय ऊर्जा (कोयले से बनाई जाने वाली बिजली) का योगदान सबसे ज्यादा, 64 प्रतिशत है जबकि जल-विद्युत (नदियों पर बने बांधों से बनाई जाने वाली बिजली) 22.4 प्रतिशत का योगदान करके दूसरे नम्बर पर है। अक्षय ऊर्जा का योगदान सन् 2002 के 2 प्रतिशत से धीरे-धीरे बढ़ता हुआ लगभग 11 प्रतिशत पर पहुंचने वाला है। बिगड़ते पर्यावरण और गरमाती धरती की विकट आपदा के संदर्भ में अक्षय ऊर्जा एकमात्र ऐसा स्रेत है, जिसमें पर्यावरण की भलाई के साथ कोई जोखिम भी नहीं है। दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल करके देश के दूर-दराज के गांवों में भी बिजली पहुंचाई जा सकती है। अक्षय ऊर्जा का मतलब है-पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, लघु स्तर की स्थानीय जल-विद्युत परियोजनाएं और कृषि व्यर्थ पदार्थो के रूप में बायोमास। इन सभी स्रेतों से पर्यावरण के लिए अनुकूल और सभी के लिए सुरक्षित बिजली बनाई जा सकती है। '
पवन ऊर्जा में ही अपार सम्भावनाएं
भारत सरकार के नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय ने हिसाब लगाकर बताया है कि अकेले पवन ऊर्जा से 48,500 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है, जो परमाणु ऊर्जा की मौजूदा क्षमता के 10 गुना से भी अधिक है। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद केवल 12,800 मेगावाट की क्षमता स्थापित की जा सकी है। पूरे देश में केवल तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और राजस्थान इस मामले में आगे हैं। जरूरत इस बात की है कि सरकार की ओर से आवश्यक सहायता और अनुकूल नीतियों का एक ऐसा माहौल तैयार किया जाय कि देश में पवन ऊर्जा की लहर चल पड़े। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान नौ हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया है। परन्तु इसके लिए कड़ी मशक्कत और दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत होगी। '
पनबिजली परियोजनाओं का विकल्प
पवन ऊर्जा की तरह हमारे देश में छोटी-छोटी नदियों और नहरों से बिजली बनाने की बेहतर सम्भावनाएं मौजूद हैं। इसे लघु पनबिजली कहा जाता है। इसमें छोटी नदियों, नहरों, पहाड़ी जलधाराओं और झरनों पर छोटी टरबाइन लगाकर बिजली बनाई जाती है। इस तरह एक मेगावाट से लेकर 25 मेगावाट तक की छोटी परियोजनाएं गांवों और दूर-दराज के इलाकों में स्थापित की जा सकती हैं। आकलन के अनुसार इस तरह पूरे देश में लगभग 15 हजार मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है, जो परमाणु ऊर्जा की मौजूदा क्षमता के तीन गुने से अधिक है। सबसे खास बात यह कि गांवों में स्थापित किये जाने के कारण इनसे सीधे उन ग्रामीणों को बिजली मिल जाती है, जिन तक बिजली के तारों की पहुंच नहीं है। '
सर्वजन हिताय स्रेतों पर जोर क्यों नहीं
गौरतलब है कि देश की 40 प्रतिशत आबादी आज भी अपने जीवन और आजीविका के लिए बिजली से वंचित है। नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक देश में लगभग 5,700 जगहों पर लघु पनबिजली परियोजनाएं स्थापित की जा सकती हैं। लेकिन अभी तक केवल 760 परियोजनाएं ही स्थापित की गई हैं जिनकी कुल स्थापित क्षमता लगभग 2,800 मेगावाट है। इस क्षमता में लगभग 300 मेगावाट प्रतिवर्ष की दर से बढ़ोतरी की जा रही है लेकिन गौरतलब है कि इसमें से 70 प्रतिशत निजी क्षेत्रों का योगदान है। सरकारी क्षेत्रों द्वारा ऊर्जा के इस पर्यावरण हितैषी और 'सर्वजन हिताय' स्रेत पर जोर क्यों नहीं दिया जा रहा है, समझ में नहीं आता। '
सौर ऊर्जा की असीम क्षमता
हमारे देश पर खासतौर से मेहरबान सूरज की रोशनी से बिजली बनाने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं जो अकसर पश्चिमी देशों में नदारद हैं। देश के ज्यादातर भागों में 300 दिन धूप खिली रहती है, जो बिजली बनाने के लिए एक अच्छा संकेत है। इस तरह प्रतिवर्ग किलोमीटर क्षेत्र से 20 से 30 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है। हिसाब लगाया गया है कि देश के कुल क्षेत्र से हर साल 5,000 खरब यूनिट बिजली उत्पादन की सम्भावना मौजूद है। इस सौर ऊर्जा के कुछ अन्य उपयोग तो धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहे हैं लेकिन सौर ऊर्जा से बिजली उत्पादन और आपूर्ति का काम धीमी रफ्तार से चल रहा है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान सौर ऊर्जा से 50 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया है। परन्तु, सितम्बर 2010 तक आठ मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता ही स्थापित की जा सकी है। पिछले साल सरकार ने सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए एक महत्त्वाकांक्षी जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सोलर मिशन शुरू किया है। इसके तहत सन् 2022 तक सौर ऊर्जा से 20 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है, जो परमाणु ऊर्जा के लिए सन् 2020 के लक्ष्य के बराबर है। कहने का मतलब यह कि सौर ऊर्जा की सम्भावना किसी भी तरह से परमाणु ऊर्जा से कम नहीं है जबकि जोखिम न के बराबर है।
ज्यादा इकोनॉमिक भी है सौर ऊर्जा
इसके अलावा सौर ऊर्जा के अनेक ऐसे उपयोग भी हैं जो बिजली या पेट्रोलियम पदार्थो की बचत का काम करते हैं। जैसे सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करके खाना पकाया जा सकता है, पानी खींचा जा सकता है, छोटे घरों के लिए बिजली बनाई जा सकती है, पानी गरम किया जा सकता है और सबसे बढ़कर यह कि विशाल भवनों की छत पर सोलर पैनल लगाकर बिजली बनाई जा सकती है। हिसाब लगाकर बताया गया है कि अगर इस तरह बिजली बचाई जाए तो एक यूनिट बिजली की बचत लगभग तीन यूनिट बिजली के उत्पादन के बराबर बैठती है। यानी हम तीन यूनिट बिजली के उत्पादन से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान से बच जाते हैं। इन उपयोगिताओं के मद्देनजर जरूरी है कि देश में सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा दिया जाए और इसके लिए पहल सरकारी संस्थानों द्वारा की जाए।
वेस्ट मैटीरियल का उपयोग भी सुरक्षित
हमारे देश में कृषि से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ जैसे धान की भूसी, खाली भुट्टे, फसलों के डंठल वगैरह बड़ी मात्रा में निकलते हैं। इसी तरह शहरों और उद्योगों से ठोस कचरे की मात्रा भी काफी ज्यादा है। कुछ आसान तकनीकें अपनाकर इनकी मद्द से लगभग 23,700 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है, जो सन् 2020 के लिए परमाणु ऊर्जा के तय किए गए लक्ष्य से लगभग 20 प्रतिशत ज्यादा है। लेकिन अभी तक इस स्रेत से केवल 2,500 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता स्थापित की जा सकी है। जापान में हुई परमाणु दुर्घटना के संदर्भ में जरूरी हो गया है कि हम अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की फिर से समीक्षा करें और देखें कि इस राह पर हमें कितना और कहां तक आगे बढ़ना है। अकसर विकास के लिए ऊर्जा की दुहाई देकर परमाणु ऊर्जा की जोरदार वकालत की जाती है परंतु आंकड़े देखें तो पता चलता है कि विकसित और सम्पन्न देश चीन के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का योगदान केवल 1.9 प्रतिशत है यानी हमारे देश से भी कम। बेहतर होगा कि अपने देश के संसाधनों और हालातों के मद्देनजर देश की ऊर्जा नीति पर नए सिरे से विचार किया जाए।