Saturday, August 4, 2012

ग्रिड फेल होना सरकार की नाकामी


बेशर्मी की हद कहा जाएगा कि जिस समय उत्तरी ग्रिड के ठप हो जाने से सात राज्यों में घुप्प अंधेरा फैला था, उस दरम्यान केंद्र की संप्रग सरकार अंधेरगर्दी मचाते हुए अपने दो मंत्रियों का ओहदा बढ़ा रही थी। वैसे इस तरह की संवेदनहीनता सरकार ने कोई पहली बार नहीं दिखाई है। देश जब भी संकट से घिरा है, सरकार की नाकामी और संवेदनहीनता सतह पर दिखी है। कभी चुनाव खत्म होने पर पेट्रो पदार्थो की कीमत बढ़ाकर उसने जनता को चिढ़ाया है तो कभी उसके मंत्रियों ने महंगाई के सवाल पर अनाप-शनाप जुबान चलाकर जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। अचरज लगता है कि अंधेरे से उपजी अराजकता को दूर करने के बजाय सरकार की चिंता अपने मंत्रियों का कद बढ़ाने की क्यों रही? क्या वह दो दिन ठहर नहीं सकती थी? ठहर जाती तो क्या आसमान टूट पड़ता? ऊर्जा मंत्री रहते हुए सुशील कुमार शिंदे ने जिस तरह ग्रिड फेल होने के कारण गिनाए, उससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। आश्चर्य लगा कि जब उन्हें बिजली संकट से निपटना चाहिए था, उस वक्त वह मीडिया के सामने राज्यों की मंशा पर शक जता रहे थे। वह यह कहते सुने गए कि राज्यों ने अपने कोटे से ज्यादा बिजली ली, जिससे ग्रिड फेल हुआ। उन्होंने अहंकार का प्रदर्शन करते हुए यह भी कहा कि अमेरिका में ग्रिड फेल होने पर सुलझाने में चार दिन लग जाते हैं, जबकि उन्होंने कुछ ही घंटों में स्थिति सामान्य कर लिया। लेकिन बड़बोले शिंदे की अनुचित बयानबाजी के तत्काल बाद ही तीन और ग्रिड फेल हो गए, जिससे 22 राज्य अंधेरे में समा गए। सात सौ से अधिक रेलगाडि़यां ट्रैक पर रुक गई। मेट्रो सेवा, एयरपोर्ट, सड़क यातायात सब चरमरा गया। इमरजेंसी सेवाओं पर ग्रहण लग गया। देश की आम जनता हैरान रही कि आखिर यह सब क्या हो रहा है। जैसे-तैसे स्थिति सुधरी तो है, लेकिन इस बात से निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि इस महासंकट का दोबारा सामना नहीं करना पड़ेगा। वह इसलिए कि सरकार अभी तक उन कारणों की खोज नहीं कर पाई है, जिसकी वजह से ग्रिड फेल हुआ है। मंत्रालय द्वारा बेसिर-पैर के तर्क गिनाए जा रहे हैं। कभी संकट के लिए राज्यों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है तो कभी कोयले की कमी का रोना रोया जा रहा है। यह स्थिति भ्रम में डालने वाली है। साथ ही आशंका पैदा करती है कि इस संकट से फिर जूझना पड़ सकता है। अगर मान भी लिया जाए कि कुछ राज्यों ने तय कोटे से अधिक बिजली का दोहन किया है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। देश में जब भी सूखे की स्थिति बनी है या अतिरिक्त बिजली की मांग बढ़ी है, राज्यों ने अपने तय कोटे से अधिक बिजली लेना जरूरी समझा है। केंद्र सरकार को भी सूखे की स्थिति में अतिरिक्त बिजली देने की व्यवस्था बनानी चाहिए। अगर केंद्र सरकार को लग रहा है कि राज्यों ने अधिक बिजली लेकर स्थिति को विस्फोटक बनाया है तो उसके लिए भी सर्वाधिक केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है, न कि राज्य सरकारें। आखिर उसने निगरानी तंत्र को कमजोर क्यों होने दिया? ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में बिजली क्षमता का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था, उसे हासिल करने में सरकार बुरी तरह विफल हुई है। गौरतलब है कि बिजली क्षमता का लक्ष्य 78 हजार मेगावाट निर्धारित किया गया था, जिसे बाद में घटाकर 63 हजार मेगावाट किया गया। किंतु सरकार को लगा कि इस लक्ष्य को हासिल करना भी कठिन है तो केवल 54,800 मेगावाट की नई क्षमता ही सृजित की जा सकी। इसके अलावा सरकार की लचर नीति के कारण उसका महत्वकांक्षी अल्ट्रा मेगावाट प्रोजेक्ट भी अधर में लटक गया है। यह कटु सत्य है कि कोई भी राज्य बिजली संयंत्र लगाना नहीं चाहता है। सबकी निर्भरता नेशनल ग्रिड पर आ टिकी है। कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि भारत में 22000 मेगावाट बिजली सिर्फ इसलिए नहीं बन पा रही है कि उसके लिए पर्याप्त मात्रा में ईधन नहीं है। बिजली परियोजनाओं को कोयला लिंकेज नहीं मिल रहा है। बिजली उत्पादन में कोयले का अकाल है तो उसके लिए केंद्र की संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुए कोयला खदानों के आवंटन की गड़बडि़यां जिम्मेदार हैं। अब सरकार बिजली प्लांटों को कोयले की आपूर्ति कैसे सुनिश्चित करेगी, यह एक बड़ा सवाल है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि गैस आधारित बिजली प्लांटों का भविष्य भी यहां अंधकारपूर्ण ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार हालिया संकट से सबक लेगी या इसका राजनीतिक फायदा उठाकर अपनी संवेदनहीनता को और पुष्ट करेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

भारी पड़ता अंधाधुंध इस्तेमाल


बीती 29 जुलाई की रात ढाई बजे उत्तरी ग्रिड के फेल हो जाने के कारण देश की 30 करोड़ जनसंख्या वाले नौ राज्य अंधकार में डूब गए। फैक्टि्रयां, रेल और यहां तक कि दिल्ली की मेट्रो ट्रेन भी ठहर गई। जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। मानसून के चलते गर्मी थोड़ी कम थी, फिर भी लोगों की मुश्किलें कम नहीं थी। हमें छोटे से पड़ोसी देश भूटान से आनन-फानन में बिजली लेकर अत्यावश्यक सुविधाओं को जैसे-तैसे बहाल करना पड़ा। लेकिन 31 जुलाई को एक बार फिर यही समस्या दोहराई गई और इस बार एक नहीं, तीन ग्रिड फेल हुए, जिसकी चपेट में ंदेश के 22 राज्य आ गए और 60 करोड़ की जनता उससे प्रभावित हुई। बिजली के इस संकट के लिए राज्य केंद्र सरकार पर और केंद्र राज्यों पर जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। केंद्र की ओर से कहा जा रहा है कि कुछ राज्य अपने कोटे से अधिक बिजली ले रहे थे। इसलिए बिजली आपूर्ति ठप हुई। गलती किसी की भी हो, बिजली देश की जीवन रेखा है। इसका ठप होना जनजीवन को प्रभावित तो करता ही है, यह देश के लिए अपमानजनक भी है। ऐसी परिस्थितियों में यह कहा जा रहा है कि चूंकि देश में बिजली की आपूर्ति आवश्यकता से कम है, इसलिए इस प्रकार की घटनाएं दोबारा कभी भी हो सकती हैं। दरअसल, पिछले कुछ समय से बिजली के अपर्याप्त उत्पादन से निजात पाने के लिए इस क्षेत्र में आवश्यक निवेश नहीं हो रहा है। मांग और आपूर्ति पिछली चार पंचवर्षीय योजनाओं में बिजली उत्पादन लक्षित क्षमता से हर बार लगभग आधा ही रहता रहा है। पिछली चार योजनाओं की कुल लक्षित वृद्धि 2 लाख 12 हजार मेगावाट की थी, जबकि बिजली की का उत्पादन रहा मात्र 1 लाख 8 हजार मेगावाट। इसी तरह ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में घोषित लक्ष्य 1 लाख मेगावाट का था, जबकि वास्तविक वृद्धि 50 हजार मेगावाट ही अनुमानित है। वर्ष 2011-12 के दौरान देश में बिजली की आपूर्ति और मांग में 9.3 प्रतिशत का अंतर था, जबकि सर्वाधिक मांग (पीक ऑवर में) और आपूर्ति में 12.9 प्रतिशत का अंतर था। बिजली की मांग लगातार 9 से 10 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ती जा रही है, जबकि इसकी आपूर्ति मात्र 7.7 प्रतिशत से ही बढ़ रही है। इसका मतलब है कि मांग और आपूर्ति में अंतर भी लगातार बढ़ रहा है। देश में बिजली की आपूर्ति बढ़ाने के के लिए तरह-तरह के उपाय हो रहे हैं, जिनमें से कोयले, जल और न्यूक्लियर प्लांट से बिजली बनाने के उपाय प्रमुख हैं। बिजली के उत्पादन के साथ जुड़े हुए पर्यावरण के विषय हैं। यदि जल से बिजली बनानी हो तो नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में खलल पड़ता है। पिछले कुछ समय से गंगा पर अवरोध खड़े करते हुए बिजली बनाने की कवायद पर लगातार विरोध हो रहा है और हाल ही में पर्यावरणविदों के तर्को के आधार पर इनमें से कुछ विकल्पों पर प्रतिबंध भी लगाया गया। कोयले या तेल से बिजली बनाने पर दूषित गैसें निकलती हैं, जो मानव जीवन के लिए खतरनाक है। जापान में आए भूकंप के कारण न्यूक्लियर संयंत्रों में हुए रिसाव का हवाला देते हुए देश में न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाए जाने का विरोध किया जा रहा है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में न्यूक्लियर पॉवर प्लांट को लेकर बड़े पैमाने पर विरोध से सभी वाकिफ हैं। ऐसे सभी विरोधों में ठोस तर्क भी हैं। क्या कुछ यूनिट बिजली प्राप्त करने के लिए हम गंगा की पवित्रता की बलि दे सकते हैं? क्या न्यूक्लियर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए रेडियोधर्मिता के खतरों को ओढ़ सकते हैं? ऐसे कुछ सवाल देश के सामने खड़े हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि बिजली की मांग कितनी है? वास्तव में यह जानना जरूरी है कि बिजली का उपभोग किस काम के लिए और किसके द्वारा ज्यादा हो रहा है। बिजली की 35 प्रतिशत मांग उद्योग, 21 प्रतिशत मांग कृषि, 28 प्रतिशत मांग घरेलू उपयोग और करीब 9 प्रतिशत मांग व्यावसायिक कार्यो के लिए होती है। बड़े उद्योग और व्यवसाय समूह खुद भी अपनी आवश्यकता के लिए अपने पॉवर प्लांट लगाकर बिजली का उत्पादन करते हैं। गौरतलब है कि बिजली का उपयोग कृषि उद्योग और सेवा क्षेत्र जैसे उत्पादक कार्यो के लिए महज 2.7 प्रतिशत की दर से ही बढ़ रहा है, जबकि गैरउत्पादक कार्यो मसलन, अमीरों की विलासिता (एयर कंडीशनर आदि) के लिए बिजली का उपभोग कहीं ज्यादा गति से बढ़ रहा है। इसके चलते कुल उपभोग की वृद्धि दर लगभग 8 प्रतिशत की है। सरकारी बयानों के अनुसार विभिन्न राज्यों द्वारा नेशनल ग्रिड से बिजली की निकासी उनके कोटे से कहीं ज्यादा हो रही थी। मसलन, हरियाणा अपने तयशुदा कोटे से 18 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 31 प्रतिशत और राजस्थान 18 प्रतिशत ज्यादा बिजली ले रहे थे। 29-30 जुलाई की रात हरियाणा द्वारा 25.5 प्रतिशत अतिरिक्त बिजली की निकासी हो रही थी। बताया जा रहा है कि इसी के चलते उत्तरी ग्रिड फेल हुई। ताकतवर राज्यों द्वारा अपने कोटे से ज्यादा बिजली की निकासी का यह पहला मामला नहीं है। बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि विलासिता के लिए बिजली का लगातार बढ़ता उपभोग भी इस संकट के लिए जिम्मेदार है। भारी पड़ती विलासिता आज देश में लगभग 7 हजार करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन प्रतिमाह होता है। इसके चलते प्रति व्यक्ति बिजली का उपभोग लगभग 58 यूनिट मासिक है। देश में अभी लगभग 18 करोड़ लोग (करीब चार करोड़ गृहस्थ) बिजली की सुविधा से वंचित हैं। इनके परिवार को एक बल्ब और एक पंखा भी नसीब हो जाए तो गनीमत हैं। ऐसे में कुल अतिरिक्त बिजली की जरूरत 120 करोड़ यूनिट की ही होगी। ऐसे में अगर 7 हजार करोड़ यूनिट बिजली में से मात्र दो प्रतिशत से भी कम बिजली इस वंचित वर्ग को मिल जाए तो पूरे देश में सबको बिजली की सुविधा उपलब्ध हो जाएगी। इसका मतलब यह है कि हमारी बारहवीं पंचवर्षीय योजना में जो एक लाख मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है, वह गरीबों और वंचितों के लिए तो कतई नहीं है। हर बार बिजली का बढ़ता उत्पादन उन लोगों के ही काम आता है, जो इसे खरीदने की क्षमता रखते हैं। इसलिए जब बिजली उत्पादन के लिए किसी भी हद तक प्रकृति के शोषण की बात आती है, चाहे नदियों पर बांध बनाकर या रेडियोधर्मिता के खतरे से लैस आणविक ऊर्जा संयंत्र लगाकर अथवा दूषित गैसों के विसर्जन के खतरे के साथ कोयले या गैस से बिजली बनाकर तो वह इस देश के आम आदमी के लिए नहीं है, बल्कि बिजली संकट को दूर करने के बहाने यह अमीरों को विलासिता के संसाधान मुहैया कराने के लिए है। यह सही है कि पिछले कुछ दिनों में ग्रिड के फेल हो जाने से देश की छवि को धक्का लगा है, लेकिन हमें विचार करना होगा कि यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है, क्योंकि हम बिजली का उपभोग हद से ज्यादा कर रहे हैं। जैसे-जैसे अमीरों की विलासिता बढ़ रही है, वैसे-वैसे बिजली संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसे में आने वाले समय में पर्यावरणीय संकटों से देश को बचाना मुश्किल होगा। ऐसे में कुछ लोग जो अंक गणितीय तरीके से मांग के अनुसार बिजली के उत्पादन को बढ़ाने के लिए निवेश बढ़ाने की बात कर रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि बिजली उत्पादन की प्राकृतिक सीमाएं हैं। बिजली संकट की यह स्थिति न आए, इसके के लिए सरकार को भी सौर ऊर्जा जैसे विकल्पों पर ध्यान देना होगा। कभी खत्म न होने वाले इस विकल्प को अपनाने के लिए लोगों को न सिर्फ प्रोत्साहित करना होगा, बल्कि अनुदान भी देना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

झारखंड में 16 फीसद महंगी हुई बिजली


महंगाई के इस दौर में राज्य के उपभोक्ताओं को बिजली दरों में बढ़ोतरी की मार भी झेलनी होगी। राज्य में बिजली की कीमतों में औसतन 16 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। हालांकि कुटीर ज्योति और कृषि उपभोक्ताओं के लिए 10 प्रतिशत ही बढ़ोतरी का प्रावधान किया गया है। बढ़ी हुई दरों से बिजली बोर्ड को 446.30 करोड़ सालाना आमदनी की बात कही जा रही है। नई दरें एक अगस्त 2012 से प्रभावी मानी जाएंगी। झारखंड राज्य विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष मुखत्यार सिंह ने राज्य बिजली बोर्ड द्वारा 36 प्रतिशत वृद्धि की मांग के सापेक्ष 16 प्रतिशत ही वृद्धि की स्वीकृति गुरुवार को दी। नियामक आयोग के अध्यक्ष ने बिजली दरों में वृद्धि के कारण भी गिनाए। कहा कि वित्तीय वर्ष 2011-12 में कोयले की कीमतों में सात प्रतिशत, फर्नेस तेल की कीमत में 16, बिजली खरीद में 39 फीसद, कर्मचारियों के वेतन-भत्ते में 77 प्रतिशत और महंगाई में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस लिहाज से वृद्धि आवश्यक थी। बिजली की दरों में वृद्धि के बाद अब जो परिवार एक हजार रुपये का बिल अदा करते थे, उन्हें अब बढ़ी हुई दरों के हिसाब से 1160 रुपये अदा करने पड़ेंगे। इस तरह ऐसे उपभोक्ताओं को बिजली मद में प्रति माह 160 रुपये का अतिरिक्त भार वहन करना पड़ेगा। मसलन, सिंह साहब के घर में प्रति माह औसतन हजार रुपये का बिल आता था। 16 फीसद महंगी बिजली के बाद अब उन्हें प्रति माह इस मद में 160 रुपये अतिरिक्त चुकाने होंगे। कडुंलना का परिवार थोड़ा छोटा है, बिजली की खपत भी थोड़ी कम है। प्रतिमाह 400 रुपये का बिल चुका रहे थे, लेकिन अब उन्हें इस मद में 64 रुपये और देने होंगे।

देश में अंधेरे के लिए यूपी-एमपी जिम्मेदार


उत्तरी ग्रिड जब 30 जुलाई की सुबह फेल हुआ था तो उसके कारण देश के अधिकतर हिस्से अंधेरे में डूब गए थे। आंतरिक जांच में पाया गया है कि देश को ऐसी स्थिति में पहुंचाने में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की मुख्य भूमिका थी। इन दोनों राज्यों द्वारा ग्रिड से निर्धारित क्षमता से अधिक बिजली लिए जाने के कारण बड़ी दुर्घटना होते-होते बची थी। उत्तरी ग्रिड से राष्ट्रीय राजधानी सहित नौ राज्यों के तीस करोड़ से अधिक लोगों को बिजली मिलती है। यह ग्रिड पहली बार 30 जुलाई को 2 बजकर 33 मिनट पर फेल किया था। इसके बाद दूसरी बार 31 जुलाई को दोपहर बाद करीब एक बजे हुआ था। पावर ग्रिड की अनुषंगी कंपनी पावर सिस्टम्स ऑपरेशन कंपनी लि (पोसोको) ने पाया है कि अधिक बिजली के प्रवाह के कारण 29 जुलाई को भी दोपहर बाद करीब तीन बजकर दस मिनट पर दुर्घटना जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। पोसोको की शुरुआती रिपोर्ट के अनुसार, 30 जुलाई को जब पहली बार जब संचार व्यवस्था में गड़बड़ी हुई थी तो करीब-करीब पूरा उत्तरी ग्रिड प्रभावित हुआ था। दूसरे दिन की खराबी के दौरान उत्तरी, पूर्वी और उत्तर पूर्वी ग्रिड पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा था। इन दोनों ही खराबी के पहले बीना-ग्वालियर-आगरा वाले 400 केवीए वाली सिंगल सर्किट लाइन में 1000 मेगावाट से भी अधिक बिजली का प्रवाह था। बीना और ग्वालियर मध्य प्रदेश में जबकि आगरा उत्तर प्रदेश में है। फिर फेल होते बचा उत्तरी ग्रिड जागरण ब्यूरो, लखनऊ : उत्तरी ग्रिड एक अगस्त को फिर फेल होते-होते बच गया था। उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लि. (यूपीपीसीएल) की ग्वालियर और आगरा के बीच की 400 केवीए की डबल सर्किट लाइन से बुधवार की शाम खतरनाक स्तर तक ओवर लोडिंग थी। संचरण लाइन से क्षमता से अधिक बिजली लेने से ग्रिड फेल हो सकता था। इससे यूपी बिजली बोर्ड के मुख्यालय शक्तिभवन स्थित कंट्रोल रूम में हड़कंप मच गया था। लाइन पर दबाव कम करने के लिए आनन-फानन में आगरा शहर की बत्ती काटी गई। कंट्रोल रूम में बैठे इंजीनियरों ने बुधवार शाम पांच बजे के करीब देखा कि वेस्टर्न ग्रिड को नार्दर्न ग्रिड से जोड़ने वाली अंतरराज्यीय ट्रांसमिशन लाइन पर आपूर्ति का दबाव छह सौ से बढ़कर आठ सौ मेगावाट हो गया है। आगरा की बिजली काटने से चार सौ मेगावाट बिजली की मांग कम हुई और लाइन पर दबाव कम हो गया। हिमाचल प्रदेश की 1600 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना नाफ्था झाकड़ी के अलावा 1200 मेगावाट की करछम परियोजना का उत्पादन एकदम से बंद हो जाने के कारण ही उक्त लाइन पर दबाव बढ़ा। ज्ञात हो, यूपी में बिजली संकट अभी भी बरकरार है। गांवों को टुकड़ों में बिजली देकर लोगों को दिलासा देने की कोशिश की जा रही है। उद्योगों को भी सिर्फ आठ घंटे की बिजली मिल पाई।

Tuesday, July 10, 2012

कोयला संकट पर पीएमओ भी नाकाम


नीतिगत फैसलों में सरकार की सुस्ती के चलते देश भर में गंभीर बिजली संकट जारी है। बिजली प्लांटों को कोयले की आपूर्ति में आ रही दिक्कतों को दूर करने में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) भी नाकाम रहा। उसके हस्तक्षेप के बावजूद कोल इंडिया पर्याप्त कोयला आपूर्ति करने को राजी नहीं हो रही है। दरअसल पीएमओ स्वयं ही कोयला आपूर्ति पर कोई ठोस फैसला नहीं कर पा रहा है। बिजली संयंत्रों को कोयला की सुनिश्चित आपूर्ति को लेकर देश की सबसे बड़ी कोयला कंपनी कोल इंडिया (सीआइएल) के निदेशक बोर्ड की मंगलवार को होने वाली बैठक भी टल गई है। पावर प्लांटों को ईंधन आपूर्ति समझौते (एफएसए) पर निजी बिजली कंपनियों के साथ बढ़ते विवाद को देखकर ही सीआइएल ने यह बैठक टाली है। देश का लगभग पूरा कोयला उत्पादन कोल इंडिया के हाथ में है। पीएमओ इस पूरे मुद्दे पर फिर से कोयला और बिजली मंत्रालयों के साथ विचार-विमर्श कर रहा है। पिछले हफ्ते ही पीएमओ के प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी की अध्यक्षता में एक अहम बैठक में यह सहमति बनी थी कि कोल इंडिया हर हालत में बिजली प्लांटों के साथ हुए एफएसए का न्यूनतम 65 फीसद कोयला देगी। इसे तीन वर्षो में बढ़ाकर 80 फीसद करने की बात थी। तीन महीने पहले पीएमओ ने कई दौर की बैठकों के बाद यह फैसला किया था कि सीआइएल को पहले वर्ष से ही न्यूनतम 80 फीसद कोयला देना होगा। अगर बिजली संयंत्र को वादे के मुताबिक इतना कोयला नहीं दिया गया तो कंपनी पर जुर्माना लगेगा, साथ ही 90 फीसद या इससे ज्यादा कोयला देने पर प्रोत्साहन का प्रावधान था। कोल इंडिया ने शुरू में हामी भी भर दी थी, लेकिन बाद में वह मुकर गई। पीएमओ का फैसला न तो एनटीपीसी को स्वीकार है और न ही निजी बिजली कंपनियों को। सीआइएल को 48 पावर प्लांटों के साथ एफएसए करना है, लेकिन अभी तक सिर्फ 27 के साथ ही समझौता हो सका है। इस समझौते के अभाव में दर्जनों बिजली प्लांट पूरी क्षमता से बिजली पैदा नहीं कर पा रहे हैं। उत्तर भारत के कई पावर प्लांटों के पास बमुश्किल दो-तीन दिन के लिए कोयला है। अगर सरकार और सीआइएल ने इन प्लांटों को कोयले की आपूर्ति बढ़ाने के तत्काल कदम नहीं उठाए तो उत्तर भारत में बिजली का संकट और बढ़ेगा। निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों (आइपीपी) का कहना है कि वर्ष 2009 के बाद शुरू किए गए संयंत्रों को समझौते का सिर्फ 40 फीसद ही कोयला मिल पा रहा है।

Saturday, July 16, 2011

जनजातियों का शोषण कर रहीं निजी बिजली कंपनियां

ठ्ठ जागरण ब्यूरो, शिमला राष्ट्रीय अनुसूचित जनजातीय आयोग के अध्यक्ष रामेश्र्वर ओराव का कहना है कि राज्य की धूमल सरकार की उदासीनता के चलते देवभूमि हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों में निजी बिजली कंपनिया लोगों को शोषण कर रहीं हैं। उन्होंने कहा कि निजी कंपनियां हिमाचल प्रदेश पावर कॉरपोरेशन से बिजली परियोजनाओं के लिए मिलने वाले मुआवजे में भी भेदभाव कर रही हैं। ओराव शिमला में शुक्रवार को पत्रकारों से बात कर रहे थे। उन्होंने आरोप लगाया कि हिमाचल के जनजातीय इलाकों में जहां भी बिजली परियोजनाएं बन रही हैं, वहां की जनता शोषित हो रही है। इसके लिए हिमाचल सरकार जिम्मेदार है। सरकार की उदासीनता के चलते निजी बिजली कंपनिया कारपोरेशन से मिलने वाली मुआवजे की धनराशि क्षेत्र के लोगों को पूरी नहीं दे रहीं हैं। उन्होंने कहा कि हिमाचल प्रदेश पावर कारपोरेशन बिजली परियोजना से प्रभावित लोगों को एक लाख चार हजार रुपये प्रति बिस्वा के हिसाब से मुआवजा दे रहा है, लेकिन निजी कंपनियां लोगों को मुआवजा देने में भेदभाव कर रही हैं। ओराव ने कहा कि आयोग ने प्रदेश व केंद्र सरकार से जनजातीय लोगों के लिए लीज पर जमीन मांगी है। ओराव ने कहा कि हिमाचल के जनजातीय क्षेत्र के लोगों को वन अधिकार और लीज पर जमीन मिलनी चाहिए। 13 जुलाई को इसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है और यह मामला लोकसभा के मानसून सत्र में पेश होगा। वन अधिकार कानून वर्ष 2008 में संसद में पास हुआ, लेकिन अभी तक हिमाचल सरकार ने इसे अमल में नहीं लाया है। प्रदेश में लोगों ने लीज पर ली जमीन के मामले 5356 हैं, जिसमें से अभी तक 236 को सरकार ने स्वीकृति दे दी है। उन्होंने कहा कि हालांकि हिमाचल में ट्राइबल लोगों पर शोषण का मामला अन्य राज्यों के मुकाबले काफी कम है, लेकिन यहां के लोग वन अधिकार से वंचित हैं। उन्होंने सरकार से अपील की है कि अल्पसंख्यक अधिकार अधिनियम के तहत जनजातीय क्षेत्र की जनता को लीज पर जमीन मिलनी चाहिए।ओराव ने बताया कि हिमाचल में अल्पसंख्यक अधिकार के अंतर्गत करीब 279 लोगों ने वन भूमि को लीज पर लेने का दावा किया, जिसमें से मात्र 59 को ही स्वीकृति मिली है। प्रदेश में 3406 ऐसे मामले हैं जो अल्पसंख्यक अधिकार के तहत लंबित हैं। उन्होंने बताया कि प्रदेश की मुख्य सचिव राजवंत संधू की अध्यक्षता में इन मुद्दों पर समीक्षा बैठक की।