Saturday, July 16, 2011

जनजातियों का शोषण कर रहीं निजी बिजली कंपनियां

ठ्ठ जागरण ब्यूरो, शिमला राष्ट्रीय अनुसूचित जनजातीय आयोग के अध्यक्ष रामेश्र्वर ओराव का कहना है कि राज्य की धूमल सरकार की उदासीनता के चलते देवभूमि हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों में निजी बिजली कंपनिया लोगों को शोषण कर रहीं हैं। उन्होंने कहा कि निजी कंपनियां हिमाचल प्रदेश पावर कॉरपोरेशन से बिजली परियोजनाओं के लिए मिलने वाले मुआवजे में भी भेदभाव कर रही हैं। ओराव शिमला में शुक्रवार को पत्रकारों से बात कर रहे थे। उन्होंने आरोप लगाया कि हिमाचल के जनजातीय इलाकों में जहां भी बिजली परियोजनाएं बन रही हैं, वहां की जनता शोषित हो रही है। इसके लिए हिमाचल सरकार जिम्मेदार है। सरकार की उदासीनता के चलते निजी बिजली कंपनिया कारपोरेशन से मिलने वाली मुआवजे की धनराशि क्षेत्र के लोगों को पूरी नहीं दे रहीं हैं। उन्होंने कहा कि हिमाचल प्रदेश पावर कारपोरेशन बिजली परियोजना से प्रभावित लोगों को एक लाख चार हजार रुपये प्रति बिस्वा के हिसाब से मुआवजा दे रहा है, लेकिन निजी कंपनियां लोगों को मुआवजा देने में भेदभाव कर रही हैं। ओराव ने कहा कि आयोग ने प्रदेश व केंद्र सरकार से जनजातीय लोगों के लिए लीज पर जमीन मांगी है। ओराव ने कहा कि हिमाचल के जनजातीय क्षेत्र के लोगों को वन अधिकार और लीज पर जमीन मिलनी चाहिए। 13 जुलाई को इसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है और यह मामला लोकसभा के मानसून सत्र में पेश होगा। वन अधिकार कानून वर्ष 2008 में संसद में पास हुआ, लेकिन अभी तक हिमाचल सरकार ने इसे अमल में नहीं लाया है। प्रदेश में लोगों ने लीज पर ली जमीन के मामले 5356 हैं, जिसमें से अभी तक 236 को सरकार ने स्वीकृति दे दी है। उन्होंने कहा कि हालांकि हिमाचल में ट्राइबल लोगों पर शोषण का मामला अन्य राज्यों के मुकाबले काफी कम है, लेकिन यहां के लोग वन अधिकार से वंचित हैं। उन्होंने सरकार से अपील की है कि अल्पसंख्यक अधिकार अधिनियम के तहत जनजातीय क्षेत्र की जनता को लीज पर जमीन मिलनी चाहिए।ओराव ने बताया कि हिमाचल में अल्पसंख्यक अधिकार के अंतर्गत करीब 279 लोगों ने वन भूमि को लीज पर लेने का दावा किया, जिसमें से मात्र 59 को ही स्वीकृति मिली है। प्रदेश में 3406 ऐसे मामले हैं जो अल्पसंख्यक अधिकार के तहत लंबित हैं। उन्होंने बताया कि प्रदेश की मुख्य सचिव राजवंत संधू की अध्यक्षता में इन मुद्दों पर समीक्षा बैठक की।

Wednesday, June 15, 2011

बिहार में बिजली संकट दूर होने के आसार नहीं


बिजली की लगातार बढ़ती मांग को देखते हुए बिहार को केंद्रीय पूल का कोटा बढ़ने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। इससे राज्य में बिजली का संकट अभी कुछ वर्षो तक और बरकरार रहेगा। सेंट्रल इलेक्टि्रसिटी अथॉरिटी (सीईए) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देश में बिजली की कुल मांग की तुलना में उत्पादन 10.3 प्रतिशत कम हो रहा है। ऐसे में बिहार को केंद्रीय पूल से अतिरिक्त बिजली दे पाना संभव नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक बिहार बिजली की सर्वाधिक किल्लत वाला राज्य है। यहां मांग से करीब 28.5 प्रतिशत बिजली कम आपूर्ति होती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले दिनों केंद्रीय पूल से बिजली का कोटा बढ़ाने की मांग को लेकर ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे से मिले थे। केंद्र सरकार की मजबूरी को देखकर ही नीतीश भूटान की बिजली परियोजनाओं में बिहार को हिस्सेदारी देने की मांग को लेकर विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से भी मिले थे। सीईए की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 96.8 करोड़ यूनिट बिजली की मांग के बावजूद 69 करोड़ यूनिट की आपूर्ति हो रही है। व्यस्त समय में राज्य में बिजली की मांग 2123 मेगावाट है। जबकि आपूर्ति 1400 मेगावाट के करीब है। रोजाना 723 मेगावाट यानी 28.7 प्रतिशत कम बिजली की आपूर्ति हो रही है। बिजली किल्लत के मामले में बिहार देश में सबसे आगे है। मध्य प्रदेश में मांग से 19.1 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 16.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 9.6, जम्मू और कश्मीर में 9.4, तमिलनाडु में 8.4 और कर्नाटक में 7.6 प्रतिशत कम बिजली की आपूर्ति होती है। रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादा बिजली की किल्लत पश्चिमी और दक्षिण राज्यों में हैं। दक्षिणी क्षेत्र में 14.5 प्रतिशत और पश्चिमी क्षेत्र के राज्यों में 11.2 प्रतिशत बिजली की कम आपूर्ति हो रही है। पूर्वी क्षेत्र के राज्यों में 11 प्रतिशत बिजली की कम आपूर्ति होने की संभावना का आकलन किया गया है। चूंकि पूर्वी राज्यों में उड़ीसा बिजली के मामले में आत्मनिर्भर है। इसलिए किल्लत सिर्फ बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ज्यादा है। दक्षिण क्षेत्र के राज्यों में तमिलनाडु की स्थिति भी अत्यंत ही खराब है। तमिलनाडु तो रोजाना 50 करोड़ रुपये की बिजली खरीद रहा है। इसके बावजूद उसे प्रत्येक दिन 1500 मेगावाट की कमी को पूरा करने के लिए लोड शेडिंग करना पड़ रहा है।


बिजली बिना बेहाल देश


बिजली के लिए पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है। बिजली के इस गहराते संकट के लिए केंद्र राज्य को और राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए अब तक किए गए सभी उपाय नाकाफी रहे हैं। भविष्य में भी बिजली संकट के समाधान की कोई संभावना नहीं हैं, बल्कि देश के ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे खुद यह चेतावनी दे रहे हैं कि बिजली का असली संकट अब से दो साल बाद होगा। ऊर्जा मंत्री के अनुसार बिजली समवर्ती सूची में है और केंद्र सरकार सिर्फ पूरक हो सकती है। बिजली के स्रोत खोजना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। सरकार के अपने आकलनों के अनुसार बिजली की मांग और आपूर्ति अंतर बढ़ता जा रहा है। देश में वितरण के दौरान क्षति का औसत 30 फीसदी से भी अधिक है। इसका नतीजा एक ओर नागरिक सुविधाओं और सेवाओं की बदहाली के रूप में आ रहा है तो दूसरी ओर उद्योग-धंधे बीमार होते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय के अनुसार भारत का ऊर्जा क्षेत्र कई गंभीर खामियों का शिकार है। इसमें यह चिंता भी व्यक्त की गई है कि यदि ये गड़बडि़यां शीघ्र दूर नहीं की गई तो देश के सकल घरेलू उत्पाद को लेकर सरकार ने जो लक्ष्य तय किया है वह पूरा नहीं हो सकेगा बिजली संकट लगातार बढ़ रहा है और साल दर साल स्थितियां और बिगड़ रही हैं। उदाहरण के लिए पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान सरकार बिजली उत्पादन क्षमता में वृद्धि के लक्ष्य का केवल 50 से 60 प्रतिशत हिस्सा ही पूरा कर सकी है। चालू पंचवर्षीय योजना के साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद कहा जा सकता है कि इस बार भी प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं है। बिजली परियोजनाओं पर जिस ढंग से काम हो रहा है उसे देखते हुए यह लक्ष्य कब पूरा होगा कोई नहीं जानता। आज सबके लिए बिजली एक चुनावी नारा बनकर रह गया है। देश में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत सिर्फ 700 किलोवाट है जो कि अमेरिका की खपत का बारहवां हिस्सा है। यह चीन के मुकाबले आधा है और वैश्विक औसत का एक चौथाई, जिसमें कई विकासशील देश भी शामिल हैं। भारत के 40 करोड़ लोगों तक बिजली की कोई पहुंच नहीं है। प्रति व्यक्ति खपत को बढ़ाने का भारत का इरादा इसीलिए शायद दूर की कौड़ी है। हमारे यहां बिजली की कीमतें भी बहुत ज्यादा है। औसतन भारत में बिजली की कीमत पांच रुपये प्रति यूनिट है। इसकी तुलना में ब्राजील में यह तीन रुपये, बोलिविया में ढाई रुपये और अर्जेटीना में चार रुपये से कम है। आम धारणा यह है कि भारत में बिजली पर भारी सब्सिडी दी जाती है। भारत में ऊर्जा की कीमत कई विकासशील देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। कई राज्यों ने तो फिक्स चार्ज सहित कई तरह के उपकर भी लगा दिए है जिससे उपभोक्ताओं को बिजली की ज्यादा कीमत देनी पड़ती है। इसके बावजूद बिजली की नियमित आपूर्ति का कोई भरोसा नहीं है। बिजली के संकट से देश का औद्योगिक विकास तो प्रभावित हुआ ही है जनता में भी सरकार के खिलाफ आक्रोश है, लेकिन यूपीए की सरकार पिछले सात साल के दौरान ऊर्जा क्षेत्र के अपने लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहा है। वृहद ऊर्जा परियोजनाओं की घोषणा के बावजूद देश ऊर्जा के उत्पादन और वितरण दोनों क्षेत्रों में कमी का सामना कर रहा है। देश के ऊर्जा क्षेत्र के बारे में केपीएमजी का श्वेत पत्र कहता है कि भारत की मौजूदा स्थापित क्षमता जहां लगभग 152 गीगावाट्स की है वहीं अंतरक्षेत्रीय संप्रेषण क्षमता सिर्फ 20 गीगावाट्स की है जो स्थापित क्षमता का मात्र 13 प्रतिशत है। वर्तमान में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य बहुत ऊंचा है जो 78,700 मेगावाट का रखा गया है। हालांकि बीते दो वर्षो में कोई कामयाबी नहीं मिली है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित केंद्रीय मंत्रियों के समूह की एक उपसमिति ने बिजली क्षेत्र की स्थिति को सुधारने के लिए कई सिफारिशें की थीं, लेकिन इस उपसमिति की पहली पंाच सिफारिशों में से चार को दो साल बाद भी पूरा नहीं किया जा सका है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोटेंक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में गठित इस उपसमिति की अधिकतर सिफारिशें बिजली परियोजनाओं को बैंकों से आसानी से और पर्याप्त मात्रा में कर्ज उपलब्ध कराने से संबंधित हैं। बिजली मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि डेढ़ वर्ष बाद भी वित्त मंत्रालय इन सिफारिशों को अमलीजामा नहीं पहना सका है। इसका नतीजा यह होगा कि आगामी 12वीं योजना के दौरान लगाए जाने वाले बिजली प्लांटों के लिए भी जरूरी राशि का इंतजाम होने में देरी होगी। 11वीं योजना के दौरान भी यही हुआ था। फंड का इंतजाम नहीं होने की वजह से कई बिजली परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ पाईं। जाहिर है कि वर्ष 2012 में शुरू होने वाली 12वीं योजना के दौरान एक लाख मेगावाट अतिरिक्त बिजली बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। यह देश की नौ फीसदी विकास की दर को हासिल करने के लिए जरूरी बताया गया है। पिछले पंद्रह सालों में बिजली क्षेत्र में सुधार के जितने भी उपाय किए गए सब अधूरे साबित हुए हैं। चालू ग्यारहवीं योजना का हाल भी कुछ ऐसा ही है जिसमें पहले तो 78 हजार मेगावाट की क्षमता का लक्ष्य रखा गया परन्तु बाद में इसमें तकरीबन 10 हजार मेगावाट की कमी करनी पड़ी। इस लक्ष्य का 60 फीसदी हासिल कर लिया जाए तो बड़ी बात होगी। बिजली क्षमता की स्थापना के लिए अल्ट्रामेगा परियोजनाओं का जो शिगूफा छोड़ा गया था वह भी कामयाब नहीं हुआ। हालांकि कहने को कोई एक दर्जन अल्ट्रामेगा परियोजनाओं की योजना बनाई जा चुकी है, लेकिन इनमें से दो-तीन को छोड शायद ही किसी में कोई काम हुआ है। बाकी परियोजनाएं धन के अभाव में अटकी हुई हैं। ये परियोजनाएं 1000 मेगावाट से ऊपर की हैं और चार करोड़ प्रति मेगावाट क्षमता के निवेश के हिसाब से प्रत्येक परियोजना के लिए कम से कम 4000 करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत है। इतना बड़ा निवेश करना किसी एक कंपनी के बस में नहीं है। यह देखकर सरकार ने हाल में अल्ट्रामेगा परियोजना के नियमों में बदलाव किया है और अब एक परियोजना पूरी होने के बाद ही कंपनियों को दूसरी परियोजना को शुरू करने की अनुमति मिलेगी। गुजरात को छोड़कर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा सहित कई राज्यों के बिजली बोर्ड भारी घाटे में है। बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण की व्यवस्था लगभग पंगु हो गई है। अधिसंख्य राज्य सरकारें भी बिजली क्षेत्र की किसी समस्या का समाधान नहीं कर पा रही है। यहां तक वे बकाया बिजली बिलों की वसूली भी नहीं कर पा रही हैं, जिसमें अधिकांश बकाया बड़े उद्यमियों और राज्य के ही सरकारी विभागों का है। बिजली की सप्लाई में सुधार के प्रयास में भी राज्य सरकारें लगभग असफल सिद्ध हो रही हैं। इस स्थिति में सुधार के लिए सरकार को गंभीरता से विचार करना होग। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Wednesday, June 1, 2011

परमाणु ऊर्जा की दरकार


महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाले परमाणु ऊर्जा संयंत्र को लेकर सरकार और स्थानीय लोगों में काफी मतभेद है। स्थानीय लोग और कुछ बुद्धिजीवी इस संयंत्र के विरोध में प्रदर्शन भी कर रहे हैं। यह बात शायद कई लोगों को अजीब लग रही होगी कि जापान में आए भूकंप के कारण परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में हुए विस्फोटों के बाद भी दुनिया में बड़े पैमाने पर नए परमाणु संयंत्रों का निर्माण करने की बात की जा रही है। जापान उन देशों का अगुवा रहा है, जिन्होंने 1970 वाले दशक के तेल संकट की रामबाण दवा परमाणु ऊर्जा को राष्ट्रीय प्राथमिकता देने की पहल की। आज उसके पास 55 परमाणु बिजलीघर हैं। देश की एक तिहाई बिजली वे ही पैदा करते हैं। भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोदकर जैतापुर परमाणु ऊर्जा परियोजना को जरूरी ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प है। टेक्नोलॉजी काफी विकसित और सुरक्षित बनती जा रही है। इसकी बदौलत परमाणु बिजलीघरों में दुर्घटनाओं के जोखिम बहुत कम हो गए हैं और भविष्य में और भी कम हो जाएंगे। आजकल दुनिया-भर में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए अलग-अलग चरणों पर 62 परमाणु रियक्टरों का निर्माण किया जा रहा है। इसके अलावा भविष्य में 300 से अधिक नए रिक्टरों के निर्माण के लिए परियोजनाओं पर चर्चा की जा रही है। रूस, चीन, भारत और दुनिया के कुछ अन्य देशों में राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा व्यवस्था के आधुनिकीकरण के कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। भारत, वियतनाम, तुर्की और बुल्गारिया में जो परमाणु बिजलीघर बनाए जा रहे हैं, रूस उनके निर्माण में सहायता कर रहा है। चीन और रूस जैसे अग्रणी देशों ने इस बात की स्पष्ट रूप से घोषणा की है कि वे जापान में घटी दुर्घटना के बावजूद नई पीढ़ी के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण के अपने कार्यक्रमों का त्याग नहीं करेंगे। देश में वर्तमान ऊर्जा की स्थिति देखने से पता चलता है कि थर्मल पॉवर प्लांट कुल ऊर्जा उत्पादन में 64.6 प्रतिशत योग देते हैं, जबकि जल-विद्युत 24.6 प्रतिशत, परमाणु ऊर्जा 2.8 प्रतिशत और पवन ऊर्जा का एक प्रतिशत योगदान रहता है। देश में उत्पादित कुल ऊर्जा की मात्रा का लगभग 23 प्रतिशत वितरण में ही नष्ट हो जाता है। हालांकि वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है। तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से परमाणु ऊर्जा और जल विद्युत के प्रति आकर्षण और बढ़ गया है। भारत-अमेरिका के साथ परमाणु समझौता कर चुका है। न्यूक्लियर ऊर्जा को गैर कार्बन उत्सर्जक मानते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं। न्यूक्लियर ऊर्जा उत्पादन के लिए हमें गुणवत्ता युक्त कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी, जिससे हमारे परमाणु संयंत्र अबाध रूप से काम करते रहें। वर्तमान में भारत में 14 परमाणु बिजलीघर है, जिनके माध्यम से 2550 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है और नौ अन्य रिएक्टर निर्माणाधीन हैं। इन निर्माणाधीन रिएक्टरों के जरिए अतिरिक्त 4092 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन होगा। देश की ऊर्जा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हमें एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। अत्यधिक उपभोग और बढ़ती जनसंख्या से देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए जैतापुर जैसे परमाणु संयंत्रों का लगना आवश्यक है। अलबत्ता इन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में उच्च स्तर के सुरक्षा मानकों का कड़ाई से पालन किया जाए, जिससे भविष्य में संभावित किसी भी तरह की प्राकृतिक आपदा से इन्हें बचाया जा सके और जनहानि की आशंका भी न रहे। सुरक्षा मानक इतने कड़े हों कि संयंत्र भूकंप और सुनामी को झेल पाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Thursday, May 19, 2011

भविष्य में विमानों में भी हो सकेगा जैव ईधन का प्रयोग


ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों का दावा है कि वे फीडस्टॉक (कागज उद्योग के कच्चे माल) से एक नए और ज्यादा शक्तिशाली जैव ईधन का निर्माण कर रहे हैं, जो भविष्य में विमानन क्षेत्र का ईधन बन सकेगा। सिडनी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थॉमस मेश्चमेयर की अगुवानी वाले दल ने कहा कि इसके लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रिया लिग्नासेल्युलोसिस फीडस्टॉक्स नाम से जानी जाती है। इसका स्रोत लुगदी और अखबार उद्योग या यहां तक की घास कटाई है। प्रो. मेश्चमेयर ने कहा, हम उच्च दाब, उच्च तापमान का इस्तेमाल करके लिग्नोसेल्युलोज फीडस्टॉक से बायोक्रूड तेल बना रहे हैं। उन्होंने बताया कि इस प्रक्रिया में इग्नाइट ऊर्जा स्रोतों की मदद भी ली जाती है। इस प्रक्रिया से मिले बायोक्रूड में चार गुना अधिक ऊर्जा होती है जो बायोइथेनॉल में बरकरार रहती है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह तकनीक विमानन उद्योग के लिए बहुत बड़ा वरदान साबित होगी। उन्होंने कहा कि बहुत ज्यादा मात्रा में बायोमास हासिल करने के लिए रचनात्मक सोच की जरूरत होगी। उन्होंने कहा, अगर हमें सारे विमानन ईधन को पुन: उपयोग में आ सकने वाले ईधन में तब्दील करना हो तो, हमारी प्रक्रिया के हिसाब से हमें दुनियाभर के मौजूदा कृषि उत्पादन के दस फीसदी हिस्से की जरूरत पड़ेगी। उन्होंने कहा, यह बहुत बड़ी संख्या है लेकिन मैं कल्पना कर रहा हूं कि यह भी संभव हो सकता है, शायद मैक्रोएल्गी के जरिए.. तटों पर जाकर, खारे पानी में, बिना मौजूदा भूमि और ताजे पानी से प्रतिस्पर्धा करे।


Sunday, May 15, 2011

हिमाचल की बिजली से पड़ोसी रोशन


हिमाचल का पानी अपना तो है, लेकिन बिजली पराई है। प्रदेश की नदियों को विद्युत परियोजनाओं ने सूखा दिया पर सूबे को जरूरत से बहुत कम बिजली मिल पा रही है। प्रदेश में रोजाना निजी विद्युत परियोजनाओं से 6500 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है, जिसमें से 260 मेगावाट बिजली पड़ोसी राज्यों को बेची जा रही है। ऐसे में गर्मियों के दौरान प्रदेश में पावर कट लगना आम बात सी हो गई है। हिमाचल प्रदेश बिजली बोर्ड के पास सिर्फ 480 मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है। ऐसे में बोर्ड भी क्या करे, क्योंकि अधिकतर निजी विद्युत परियोजनाएं हैं। विशेष यह है कि गर्मियां शुरू होने पर ही ऊर्जा राज्य पावर कट लग जाता है। पावर कट लगना मजबूरी भी है, क्योंकि पड़ोसी राज्यों से सर्दियों में बिजली ली जाती है। इसका कारण प्रदेश की नदियों में सर्दियों के दौरान कम पानी का होना है। खासकर औद्योगिक क्षेत्रों में मई से लेकर सितंबर तक पावर कट से उद्योग जगत भी त्रस्त है। फिलहाल उद्योगों में पावर कट से बचने के लिए कोई तीसरा विकल्प नहीं हैं। बिजली उत्पादक राज्य होने के नाते उद्योगों में बिजली गुल एवं अचानक कट लगने से पावर पॉलिसी पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है। जरूरत 235, उपलब्ध 220 लाख यूनिट : हिमाचल में हर दिन 235 लाख यूनिट बिजली की जरूरत है, लेकिन 220 एलयू ही मिल रही है। बताया जा रहा है कि 15 लाख यूनिट बिजली की सप्लाई पड़ोसी राज्यों के लिए की जा रही है। ऐसा इसलिए कि सर्दियों में हिमाचल खुद पड़ोसी राज्यों से बिजली खरीदता है। विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष सुभाष चंद नेगी ने कहा कि पावर कट लगाने से पूर्व उपभाक्ताओं को सूचित करना होता है, यदि ऐसा नहीं किया तो निजी बिजली कंपनियों के खिलाफ इलेक्टि्रसिटी एक्ट-2003 के तहत सख्त कार्रवाई की जाती है।


Monday, April 25, 2011

बिजली अनियमितता पर नहीं है कंट्रोल


फिर न्यूक्लियर प्लांट का विरोध


तीन साल पहले देश में इस मसले पर खूब बहस हुई थी। विरोध के स्वर लेफ्ट पार्टियों की तरफ से उठ रहे थे। उनका कहना था कि बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूक्लियर पावर का ऑप्शन ठीक नहीं है। उनके मुताबिक यह खर्चीला ऑप्शन है जिसे हम अमेरिका के कहने पर अपना रहे हैं। लेकिन लेफ्ट के तर्क को नहीं माना गया। कांग्रेस ने न्यूक्लियर पावर के मसले पर वामपंथियों से नाता तोड़ना बेहतर समझा। फिर लोकसभा चुनाव हुए। जनता की अदालत में कांग्रेस की जीत हुई और लेफ्ट बुरी तरह से हार गया। ऐसा लगा कि न्यूक्लियर पावर के मसले पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन बहस फिर से शुरू हो गई है। इस बार विरोध लेफ्ट या राइट की तरफ से नहीं हो रहा है। विरोध की वजह इस बार जापान है। जापान के फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट में दुर्घटना के बाद न्यूक्लियर पावर की अवधारणा पर ही सवाल उठने लगे हैं। फुकुशिमा के दाइची न्यूक्लियर प्लांट को इस तरह से बनाया गया था कि वह रिक्टर स्केल पर 8 की तीव्रता वाले भूकंप को सह सकता था। साथ ही 5 मीटर लंबी सुनामी की लहरों को बिना किसी नुकसान के झेल पाने की भी इसकी क्षमता थी। लेकिन प्रकृति कहां किसी प्लानिंग को मानती है। रिक्टर स्केल पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप के बाद फुकुशिमा दाइची प्लांट के अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे हैं। फुकुशिमा की दुर्घटना के बाद पूरी दुनिया में न्यूक्लियर पावर की सुरक्षा पर बहस तेज हो गई है। न्यूक्लियर टेक्नालॉजी के उपयोग को खत्म करने की मांग को लेकर मार्च में यूरोप के कई देशों में प्रदर्शन हुए। जर्मनी में यह प्रदर्शन इतना मुखर था कि वहां की सरकार ने 17 में से सात परमाणु रिएक्टरों को कुछ दिनों के लिए बंद करने का फैसला भी कर दिया। साथ ही चीन की सरकार ने घोषणा की है कि नए रिएक्टर लगाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। फिलहाल चीन में 25 नए न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने का काम चल रहा है। पूरी दुनिया में इतना कुछ हो रहा है, तो भारत में भी इसका असर होना तय था। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में दुनिया के सबसे बड़े जैतापुर न्यूक्लियर पावर प्लांट पर काम शुरू हो गया है। 9,900 मेगावाट वाले इस प्लांट के लिए 2,300 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हो चुका है। लेकिन हाल के दिनों में इसके खिलाफ मुहिम तेज हो गई है। विरोध करने वाले भारी भरकम दलीलें भी दे रहे हैं। जैतापुर प्लांट का विरोध करने वालों की सबसे बड़ी दलील यह है कि इस इलाके में बहुत भूकंप आते हैं। 1985 से 2005 के बीच यानी 20 साल के अंदर यहां 95 बार भूकंप आए। यह सच है कि सारे भूकंप कम तीव्रता वाले थे। लेकिन इतने सारे भूकंप के आने का मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि इस इलाके में बड़े भूकंप भी आ सकते हैं। और यदि सच में बड़े भूकंप आ जाते हैं तो फिर फुकुशिमा जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। क्या प्लांट लगाने वालों ने इस पर विचार किया है? विरोध करने वालों की दूसरी दलील यह है कि यह पूरा इलाका तटीय है, जहां 20,000 मछुआरों की जिंदगी समुद्री मछली के व्यापार पर निर्भर है। प्लांट बन गया तो इस पूरे इलाके में मछली मारना संभव नहीं होगा। फिर इनके जीविकोपार्जन का क्या होगा। साथ ही यह इलाका पूरी दुनिया में अल्फांसो आम के लिए प्रसिद्ध है। प्लांट बन गया तो रेडिएशन की वजह से इस उत्तम क्वालिटी के आम के खरीदार नहीं मिलेंगे। और इसका व्यापार भी खत्म हो जाएगा। जैतापुर प्लांट का विरोध करने वालों की तीसरी दलील है कि यहां फ्रांस की अरेवा कंपनी के जो रिएक्टर लग रहे हैं उसका अभी तक दुनिया में कभी टेस्ट ही नहीं हुआ है। अरेवा के इसी तरह के रिएक्टर फ्रांस और फिनलैंड में लगने थे। लेकिन सेफ्टी की वजह से उनकी स्थापना में देरी हो रही है। तो क्या हमें ऐसे रिएक्टर लगाने चाहिए जिनकी सुरक्षा का हमें पूरी तरह से भरोसा ही न हो। अभी तक हमारे देश में जितने भी न्यूक्लियर प्लांट लगे हैं, उन सबका विकास देश में ही हुआ था। पहली बार हम किसी विदेशी कंपनी से रिएक्टर इंपोर्ट कर रहे हैं। जैतापुर के लिए फ्रांस की अरेवा से करार हुआ है, तो दूसरे प्लांट के लिए अमेरिका और रूस की कंपनियों से रिएक्टर खरीदने की बात हो रही है। विरोधियों की दलील तो हमने जान ली। अब जरा यह देखें कि जैतापुर प्लांट के पक्ष में बोलने वाले क्या कह रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी दलील है कि 9 परसेंट की रफ्तार से तरक्की करने वाले देश को बहुत बिजली की जरूरत है। कोयला और कच्चे तेल से बिजली पैदा करना खर्चीला भी है और उससे पर्यावरण को भी भारी नुकसान होता है। भारत में पैदा होने वाली हानिकारक ग्रीनहाउस गैस का 36 परसेंट से ज्यादा पावर प्लांट से ही निकलता है। देश की बिजली की जरूरतों पूरा करना हो और पर्यावरण को भी बचाना हो, तो न्यूक्लियर पावर से बेहतर विकल्प हो ही नहीं सकता है। फिलहाल देश के कुल बिजली उत्पादन का महज तीन परसेंट हिस्सा न्यूक्लियर प्लांट से आता है। इसको अगले 8 साल में छह परसेंट करने की योजना है। इसके लिए अगले कुछ साल में 44 नए न्यूक्लियर प्लांट लगाने की योजना है। सरकार की योजना है कि 2050 तक देश की कुल बिजली जरूरत का 25 परसेंट हिस्सा न्यूक्लियर प्लांट से पूरा हो। जैतापुर का यह 9,900 मेगावाट वाला प्रोजेक्ट भी उसी दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है। इसीलिए इस प्रोजेक्ट के पैरोकार लाख विरोध के बावजूद जैतापुर प्लांट पर काम रोकना नहीं चाहते हैं। अब सवाल यह है कि देश हित में क्या है? जैतापुर प्लांट का रुकना या फिर इसका आगे बढ़ना। हमारे लिए अच्छी बात यह है कि हमारे यहां परमाणु रिएक्टर तब लग रहे हैं जब दुनिया ने पिछली दुर्घटनाओं से बहुत कुछ सीख लिया है और टेक्नालॉजी में उसी हिसाब से सुधार कर लिया है। लेकिन किसी भी फैसले को लेते वक्त इस बात का खयाल रखना जरूरी है कि न्यूक्लियर प्लांट की सुरक्षा में किसी प्रकार की कोताही न हो।


Friday, April 22, 2011

बिरसिंहपुर में ठप हो सकता है उत्पादन


नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने दिया वैकल्पिक ऊर्जा प्रयोग पर जोर


जापान के परमाणु संकट से सबक लेते हुए नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने बृहस्पतिवार को भारत और चीन समेत विश्व भर से परमाणु ऊर्जा के स्थान पर वैकल्पिक ऊर्जा के प्रयोग का आह्वान किया है। विश्व शांति के लिए नोबेल पुरस्कार जीत चुके आर्कबिशॉप डेसमंड टुटु, एडोल्फ पेरस एसक्यूवेल और रमोस होरता समेत नौ विजेताओं ने एक पत्र लिख कर यह बात कही है। यह पत्र उन 31 देशों को भेजा गया है जो वर्तमान में परमाणु ऊर्जा पर अधिक काम कर रहे है। नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने लिखा, यह समय इस बात को समझने का है कि परमाणु ऊर्जा स्वच्छ, सुरक्षित और सस्ता ऊर्जा स्रोत नहीं है। उन्होंने कहा, हमारा मानना है कि वर्तमान में अगर दुनियाभर में परमाणु ऊर्जा के प्रयोग को रोक दिया तो भविष्य में पूरी दुनिया शांति से और सुरक्षित रह सकेगी। परमाणु ऊर्जा के दूरगामी प्रभाव को बताते हुए उन्होंने कहा कि तमाम देश इस खतरनाक और महंगी ऊर्जा कोउत्पादित करने में लगे हैं जबकि इससे सस्ते और दीर्घकालिक स्रोत ज्यादा आसानी से उपलब्ध हैं। वर्तमान में विश्व भर में चार सौ से ज्यादा परमाणु संयंत्र हैं। इनमें कई प्राकृतिक आपदा के कारण जोखिम वाले स्थानों पर हैं। यह विश्व के कुल ऊर्जा का केवल सात प्रतिशत उत्पादन ही करते हैं। उन्होंने कहा, आप मिलकर इस ऊर्जा स्रोत को दूसरे सुरक्षित स्रोतों से बदल दें तो हमें परमाणु मुक्त भविष्य मिल सकता है|
फुकुशिमा संयंत्र के 20 किलोमीटर दायरे में जाने पर प्रतिबंध लगाया
जापान सरकार ने गुरुवार को क्षतिग्रस्त फुकुशिमा परमाणु बिजली संयंत्र के चारों तरफ 20 किलोमीटर के दायरे में लोगों के जाने पर पाबंदी लगा दी। प्रधानमंत्री नाओतो कान ने फुकुशिमा प्रांत का दौरा किया। समाचार एजेंसी आरआईए नोवोस्ती ने बताया कि अधिकारियों ने स्थानीय समय आधी रात से संयंत्र के 20 किलोमीटर के दायरे में सभी अनधिकृत प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है। मुख्य कैबिनेट सचिव यूकिओ इदानो ने कहा कि लोगों को विकिरण के खतरे और लूटपाट से बचाने के उद्देश्य से यह कदम उठाया गया है। ज्ञात हो कि गत 12 मार्च को संयंत्र के दायरे से लोगों को हटाए जाने के बाद घर लौटे लोगों को पुलिस गुरुवार तक कानूनी रूप से उन्हें इलाके में प्रवेश करने से रोक नहीं पाई थी। अधिकारी इन क्षेत्रों के निवासियों को थोड़े समय के लिए घर भेजने की योजना तैयार करने वाले हैं ताकि वे वहां से अपनी जरूरत की वस्तुओं को ला सकें। देश में 11 मार्च को आए नौ तीव्रता वाले भूकंप और सुनामी से फुकुशिमा परमाणु बिजली संयंत्र गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गया। संयंत्र के रिएक्टरों से हो रहे रेडियोधर्मी रिसाव पर काबू पाने के लिए संयंत्र के अधिकारी संघर्ष कर रहे हैं। संयंत्र के दायरे में रहने वाले करीब 80,000 लोगों को यहां से निकालकर राहत शिविरों में रखा गया है|

जैतापुर में हंगामा है क्यों बरपा


पिछले बीस वर्षो में जैतापुर ने भूकंप के 92 झटके झेले हैं। देश को इस एटॉमिक पॉवर प्लांट के कारण करीब दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में बनाए जा रहे 9,900 मेगावाट की उत्पादन क्षमता वाले इस प्रस्तावित प्लांट को लेकर महाराष्ट्र के रत्नागिरी में तनाव की स्थिति है। पुलिस फायरिंग में अभी तक एक युवक की मौत हो चुकी है। बंद के दौरान प्रदर्शनकारियों ने एक बस में आग लगा दी और अस्पताल में तोड़फोड़ की। महाराष्ट्र विधानसभा में भी यह मामला गूंजा। सरकार अगर इसी तरह अपना दमन चक्र चलाती रही तो जैतापुर को दूसरा नंदीग्राम बनते देर नहीं लगेगी। जापान में सुनामी और भूकंप के बाद पॉवर प्लांट फुकुशिमा की जो हालत हुई और उससे जो बरबादी हुई, उससे भारतीयों ने सबक लिया है। अब जैतापुर में प्रस्तावित पॉवर प्लांट का विरोध हो रहा है। लोग आंदोलन कर रहे हैं। सरकार है कि झुकना नहीं चाहती, आंदोलनकारी अड़े रहना चाहते हैं। इस पॉवर प्लांट का विरोध करने वाले पर्यावरणविद् कहते हैं कि यह प्लांट जिस स्थान पर बनाया जाना है, वह स्थल तीन नंबर भूकंपग्रस्त क्षेत्र में आता है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों के अनुसार, इस स्थल पर 1985 से 2005 तक भूकंप के 92 झटके आ चुके हैं। इसमें से अधिकांश झटके तो 1993 में लगे थे। इसकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.2 थी। जापान से सबक लेते हुए सरकार ने जैतापुर के पॉवर प्लांट के डिजाइन में बदलाव करते हुए ऊंचा प्लेटफॉर्म बनाने का निर्णय लिया है। इस पर पर्यावरणविद् कहते हैं कि जैतापुर परमाणु संयंत्र को भूकंप से कोई नुकसान नहीं होगा, यह समझना मूर्खता होगी। यदि जैतापुर में भूकंप का झटका लगेगा तो संभव है कि यह पूरा इलाका ही मैदान बन जाए। यही नहीं, इसका असर मायानगरी मुंबई तक हो सकता है। जैतापुर में जो परमाणु संयंत्र बनाया जा रहा है, वह भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व का सबसे बड़ा एटॉमिक पॉवर स्टेशन होगा। इसकी कुल क्षमता 9900 मेगावॉट बिजली पैदा करने की होगी। मुख्यमंत्री पद संभालते ही अशोक चौहान ने यह तय कर लिया कि इस पॉवर प्लांट के विरोध को हमेशा-हमेशा के लिए कुचल दिया जाए। सरकार ने हरसंभव कोशिश की, लेकिन विरोध बढ़ता ही रहा। पॉवर प्लांट के लिए किसानों की जमीन हस्तगत की जाने लगी। परिणामस्वरूप आंदोलनकारी किसानों पर पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। इसके खिलाफ किसानों ने भी पुलिस थाना जला दिया। इस घटना ने 90 साल पहले के चौरा-चौरी कांड की याद दिला दी। इसके बाद भी किसानों की जमीन को जबर्दस्ती हथियाने की प्रवृत्ति में कोई तब्दीली नहीं आई। जब जापान में फुकुशिमा पॉवर प्लांट की हालत खराब हुई, तब हमारे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि अब समय आ गया है कि हम भी जैतापुर पॉवर प्लांट के बारे में पुनर्विचार करें। इसके बाद उन पर केंद्र से दबाव आ गया। इसलिए उन्हें अपने बयान में तब्दीली करनी पड़ी। एक सप्ताह बाद ही पर्यावरण मंत्री के सुर बदल गए। अब वे कहने लगे कि उक्त प्लांट की चिंता पर्यावरण मंत्रालय की नहीं, बल्कि न्यूक्लियर पॉवर कारपोरेशन की है। न्यूक्लियर पॉवर कारपोरेशन के अध्यक्ष श्रेयांस कुमार जैन ने पत्रकारों के सामने यह कह दिया कि यह पॉवर प्लांट सूनामी और भूकंप के झटके आसानी से सह लेगा, लेकिन जब उनसे यह पूछा गया कि क्या यह संयंत्र 9 की तीव्रता वाले भूकंप को सह सकता है, तब उन्होंने इस गंभीर प्रश्न का मखौल उड़ाते हुए कहा कि भारत में 9 की तीव्रता का भूकंप आ ही नहीं सकता। पूरे विश्व में अभी तक तीन प्रकार के परमाणु ऊर्जा संयंत्र तैयार हो रहे हैं। जापान का फुकुशिमा रिएक्टर लाइट वॉटर टेक्नालॉजी पर आधारित है। उसमें परमाणु ईधन को ठंडा करने के लिए सामान्य पानी का उपयोग किया जाता है। हमारे देश में काकरापार, तारापुर आदि स्थानों पर जो एटॉमिक रिएक्टर तैयार किए गए हैं, वे हैवी वॉटर की टेक्नालॉजी पर आधारित है। इसमें जिस पानी का इस्तेमाल किया जाता है, उसमें शामिल ऑक्सीजन का परमाणु सामान्य परमाणु की अपेक्षा अधिक भारी होता है। जैतापुर में जो परमाणु संयंत्र स्थापित किया जा रहा है, वह प्रेशराइज्ड वॉटर की टेक्नॉलॉजी पर आधारित है। यह टेक्नालॉजी एकदम आधुनिक है। अभी इसे सुरक्षा की कसौटी में कसना बाकी है। पूरी दुनिया में इस प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल करने वाला यह पहला संयंत्र है। इस तरह का परमाणु रियेक्टर अभी तक किसी भी देश में काम नहीं कर रहा है। फ्रांस की कंपनी अरेवा भारत में इस तकनीक का इस्तेमाल कर एक प्रयोग करना चाहती है। जैतापुर में जिस एटामिक रिएक्टर का निर्माण किया जा रहा है, उसके खर्च के बारे में सरकार ने अभी तक अधिकृत जानकारी नहीं दी है। फिनलैंड में जो 1650 मेगावॉट क्षमता का रिएक्टर बनने को है, उस पर 5.7 अरब यूरो के खर्च की संभावना है। चीन जो रिएक्टर खरीदने वाला है, वह 5 अरब यूरो का है। हम यदि इन दोनों की तुलना करें तो 1650 मेगावॉट के एक रिएक्टर का खर्च 5.3 अरब यूरो होता है। जैतापुर में ऐसे 6 रिएक्टर तैयार किए जा रहे हैं, जिसकी लागत 193 लाख करोड़ रुपये हो सकती है। फ्रांस के सहयोग से जैतापुर में बनाए जाने वाले परमाणु बिजली संयंत्र के पक्ष में जो सबसे मजबूत दलील दी जा रही है, वह यह है कि इस प्रोजेक्ट के अस्तित्व में आ जाने से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी। महाराष्ट्र में इस वक्त 16 हजार मेगावाट बिजली की खपत है, जिसमें 13,500 मेगावाट बिजली अन्य स्त्रोतों से हासिल की जाती है। इसमें राज्य सरकार की इकाई महाजेनको का योगदान रहता है और करीब 1500 मेगावाट बिजली बाहर से खरीदी जाती है। इसका नतीजा होता है कि महाराष्ट्र के अधिकतर इलाकों में रोज छह से आठ घंटे तक बिजली की कटौती की जाती है। कुछ वर्षो पहले तो स्थिति और भी खराब थी, जब राज्य में हर दिन 18 घंटे बिजली की कटौती होती थी। जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र यदि काम करना शुरू कर दे तो बिजली की कमी झेल रहे राज्य को बड़ी राहत मिलेगी, लेकिन जापान में आए भूकंप और सूनामी के बाद फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट से रेडिएशन लीक के बढ़ते खतरे के बीच जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र को लेकर जो डर बढ़ रहा है, उसे दूर करने की पुख्ता व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं दे रही है। भारत के न्यूक्लियर प्लांट तीसरी पीढ़ी के रिएक्टरों और तकनीकी से लैस हैं, जो सूनामी और भूकंप जैसे प्राकृतिक हादसों की स्थिति से निपटने में कारगर हैं। तमिलनाडु में कलपक्कम प्लांट सूनामी प्रभावित क्षेत्र में आता है। यहां 260 टन और 625 टन पानी की क्षमता वाले मजबूत कूलिंग सिस्टम हैं। अगर कोई अनहोनी होती है तो इससे निपटने के लिए पूरा वक्त (48 घंटे) मिलता है। जापान में न्यूक्लियर पॉवर प्लांट्स की सुरक्षा के लिए कई उपाय किए गए हैं। ये प्लांट इस तरह सुरक्षित बनाए जाते हैं कि किसी दुर्घटना की स्थिति में आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर खराब असर नहीं पड़े। यहां के परमाणु रिएक्टर इस तरीके से बनाए जाते हैं कि भूकंप आने की स्थिति में ये खुद बंद हो जाते हैं, जिससे किसी तरह की दुर्घटना की कोई आशंका ही न रहे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).