तीन साल पहले देश में इस मसले पर खूब बहस हुई थी। विरोध के स्वर लेफ्ट पार्टियों की तरफ से उठ रहे थे। उनका कहना था कि बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूक्लियर पावर का ऑप्शन ठीक नहीं है। उनके मुताबिक यह खर्चीला ऑप्शन है जिसे हम अमेरिका के कहने पर अपना रहे हैं। लेकिन लेफ्ट के तर्क को नहीं माना गया। कांग्रेस ने न्यूक्लियर पावर के मसले पर वामपंथियों से नाता तोड़ना बेहतर समझा। फिर लोकसभा चुनाव हुए। जनता की अदालत में कांग्रेस की जीत हुई और लेफ्ट बुरी तरह से हार गया। ऐसा लगा कि न्यूक्लियर पावर के मसले पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन बहस फिर से शुरू हो गई है। इस बार विरोध लेफ्ट या राइट की तरफ से नहीं हो रहा है। विरोध की वजह इस बार जापान है। जापान के फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट में दुर्घटना के बाद न्यूक्लियर पावर की अवधारणा पर ही सवाल उठने लगे हैं। फुकुशिमा के दाइची न्यूक्लियर प्लांट को इस तरह से बनाया गया था कि वह रिक्टर स्केल पर 8 की तीव्रता वाले भूकंप को सह सकता था। साथ ही 5 मीटर लंबी सुनामी की लहरों को बिना किसी नुकसान के झेल पाने की भी इसकी क्षमता थी। लेकिन प्रकृति कहां किसी प्लानिंग को मानती है। रिक्टर स्केल पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप के बाद फुकुशिमा दाइची प्लांट के अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे हैं। फुकुशिमा की दुर्घटना के बाद पूरी दुनिया में न्यूक्लियर पावर की सुरक्षा पर बहस तेज हो गई है। न्यूक्लियर टेक्नालॉजी के उपयोग को खत्म करने की मांग को लेकर मार्च में यूरोप के कई देशों में प्रदर्शन हुए। जर्मनी में यह प्रदर्शन इतना मुखर था कि वहां की सरकार ने 17 में से सात परमाणु रिएक्टरों को कुछ दिनों के लिए बंद करने का फैसला भी कर दिया। साथ ही चीन की सरकार ने घोषणा की है कि नए रिएक्टर लगाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। फिलहाल चीन में 25 नए न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने का काम चल रहा है। पूरी दुनिया में इतना कुछ हो रहा है, तो भारत में भी इसका असर होना तय था। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में दुनिया के सबसे बड़े जैतापुर न्यूक्लियर पावर प्लांट पर काम शुरू हो गया है। 9,900 मेगावाट वाले इस प्लांट के लिए 2,300 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हो चुका है। लेकिन हाल के दिनों में इसके खिलाफ मुहिम तेज हो गई है। विरोध करने वाले भारी भरकम दलीलें भी दे रहे हैं। जैतापुर प्लांट का विरोध करने वालों की सबसे बड़ी दलील यह है कि इस इलाके में बहुत भूकंप आते हैं। 1985 से 2005 के बीच यानी 20 साल के अंदर यहां 95 बार भूकंप आए। यह सच है कि सारे भूकंप कम तीव्रता वाले थे। लेकिन इतने सारे भूकंप के आने का मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि इस इलाके में बड़े भूकंप भी आ सकते हैं। और यदि सच में बड़े भूकंप आ जाते हैं तो फिर फुकुशिमा जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। क्या प्लांट लगाने वालों ने इस पर विचार किया है? विरोध करने वालों की दूसरी दलील यह है कि यह पूरा इलाका तटीय है, जहां 20,000 मछुआरों की जिंदगी समुद्री मछली के व्यापार पर निर्भर है। प्लांट बन गया तो इस पूरे इलाके में मछली मारना संभव नहीं होगा। फिर इनके जीविकोपार्जन का क्या होगा। साथ ही यह इलाका पूरी दुनिया में अल्फांसो आम के लिए प्रसिद्ध है। प्लांट बन गया तो रेडिएशन की वजह से इस उत्तम क्वालिटी के आम के खरीदार नहीं मिलेंगे। और इसका व्यापार भी खत्म हो जाएगा। जैतापुर प्लांट का विरोध करने वालों की तीसरी दलील है कि यहां फ्रांस की अरेवा कंपनी के जो रिएक्टर लग रहे हैं उसका अभी तक दुनिया में कभी टेस्ट ही नहीं हुआ है। अरेवा के इसी तरह के रिएक्टर फ्रांस और फिनलैंड में लगने थे। लेकिन सेफ्टी की वजह से उनकी स्थापना में देरी हो रही है। तो क्या हमें ऐसे रिएक्टर लगाने चाहिए जिनकी सुरक्षा का हमें पूरी तरह से भरोसा ही न हो। अभी तक हमारे देश में जितने भी न्यूक्लियर प्लांट लगे हैं, उन सबका विकास देश में ही हुआ था। पहली बार हम किसी विदेशी कंपनी से रिएक्टर इंपोर्ट कर रहे हैं। जैतापुर के लिए फ्रांस की अरेवा से करार हुआ है, तो दूसरे प्लांट के लिए अमेरिका और रूस की कंपनियों से रिएक्टर खरीदने की बात हो रही है। विरोधियों की दलील तो हमने जान ली। अब जरा यह देखें कि जैतापुर प्लांट के पक्ष में बोलने वाले क्या कह रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी दलील है कि 9 परसेंट की रफ्तार से तरक्की करने वाले देश को बहुत बिजली की जरूरत है। कोयला और कच्चे तेल से बिजली पैदा करना खर्चीला भी है और उससे पर्यावरण को भी भारी नुकसान होता है। भारत में पैदा होने वाली हानिकारक ग्रीनहाउस गैस का 36 परसेंट से ज्यादा पावर प्लांट से ही निकलता है। देश की बिजली की जरूरतों पूरा करना हो और पर्यावरण को भी बचाना हो, तो न्यूक्लियर पावर से बेहतर विकल्प हो ही नहीं सकता है। फिलहाल देश के कुल बिजली उत्पादन का महज तीन परसेंट हिस्सा न्यूक्लियर प्लांट से आता है। इसको अगले 8 साल में छह परसेंट करने की योजना है। इसके लिए अगले कुछ साल में 44 नए न्यूक्लियर प्लांट लगाने की योजना है। सरकार की योजना है कि 2050 तक देश की कुल बिजली जरूरत का 25 परसेंट हिस्सा न्यूक्लियर प्लांट से पूरा हो। जैतापुर का यह 9,900 मेगावाट वाला प्रोजेक्ट भी उसी दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है। इसीलिए इस प्रोजेक्ट के पैरोकार लाख विरोध के बावजूद जैतापुर प्लांट पर काम रोकना नहीं चाहते हैं। अब सवाल यह है कि देश हित में क्या है? जैतापुर प्लांट का रुकना या फिर इसका आगे बढ़ना। हमारे लिए अच्छी बात यह है कि हमारे यहां परमाणु रिएक्टर तब लग रहे हैं जब दुनिया ने पिछली दुर्घटनाओं से बहुत कुछ सीख लिया है और टेक्नालॉजी में उसी हिसाब से सुधार कर लिया है। लेकिन किसी भी फैसले को लेते वक्त इस बात का खयाल रखना जरूरी है कि न्यूक्लियर प्लांट की सुरक्षा में किसी प्रकार की कोताही न हो।
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