Monday, April 18, 2011

ऊर्जा और पर्यावरण की चुनौती


ऊर्जा का महत्व किसी राष्ट्र के लिए शरीर में रक्त की तरह है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी के साथ महत्वपूर्ण यह भी है कि ऊर्जा की आपूर्ति चाहे जिस रूप में हो, पर्यावरण की कीमत पर नहीं हो सकती जिस पर समूचे मानव समुदाय का अस्तित्व तथा सभी हित निर्भर हैं और जिसके लिए राष्ट्र-राज्य होता है। ऊर्जा की बढ़ती जरूरत और पर्यावरण को न्यूनतम स्तर तक संरक्षित रखने की चुनौती के इन्हीं पाटों में संतुलन के उपायों पर देश की ऊर्जा और पर्यावरण नीति को दो-चार होना पड़ रहा है। इसका हल जल्द नहीं खोजा गया तो आर्थिक विकास की गति तो प्रभावित होगी ही, आम जन-जीवन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। आज ऊर्जा के लिए विश्व में कोयले के सिवा कोई सुरक्षित विकल्प नजर नहीं आ रहा है। केंद्र ने परमाणु ऊर्जा को विकल्प मानते हुए अमेरिका से समझौता तो किया लेकिन जापान में भूकम्प से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में पैदा त्रासदी के बाद सरकार की चिंता बढ़ गई है। यद्यपि वह परमाणु ऊर्जा के लिए लालसावान पहले से रही है और उसने रूस, फ्रांस, आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी इसके खातिर सहयोग पाने की सम्भावनाओं की तलाश की पर वह इसके खतरों से आशंकित भी रही है। इसी का नतीजा है कि आज उसको संसद के अगले सत्र में कोयला नियामक बिल पेश करने की घोषणा करनी पड़ रही है। सरकार भले कह रही हो कि इसका मकसद कोयला क्षेत्र में होने वाली छोटी-मोटी अनियमितताओं को दूर करना व कोल इंडिया के कार्य संचालन को दुरुस्त करना है किंतु असल बात पर्यावरण है जिसे संरक्षित करने का पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीड़ा उठा रखा है। इसके तहत कोयला खदानों को लेकर देश के 65 प्रतिशत भाग को 'गो' और 35 प्रतिशत भाग को 'नो-गो' क्षेत्र घोषित किया गया है। इससे दो मंत्रालयों में तकरार है। कोयला मंत्री सिर्फ 10 फीसद हिस्से को 'गो' एरिया के तहत चाहते हैं। रमेश के हठ से कोयले के 200 से अधिक ब्लॉकों को मंजूरी नहीं मिल पा रही है और कोयला कमी से ऊर्जा संकट की आशंका बन गई है। सरकारी प्रबंधों से ऐसा नहीं हुआ तो बिजली महंगाने के अलावा चारा नहीं रह जाएगा। कोल इंडिया के खनन से पर्यावरण के लिए अनेक चुनौतियां बढ़ी हैं। इसके मद्देनजर पर्यावरणमंत्री का रवैया तकरे की दृष्टि से सही है फिर भी इसने देश में कोयला उत्पादन वृद्धि दर 2012 तक शून्य पर पहुंच जाने की स्थिति बना दी है। 2009-10 में कोयले का उत्पादन 600 मिलियन टन की मांग के मुकाबले 70 मिलियन टन कम था। इस साल 603 मिलियन टन उत्पादन का अनुमान है पर मांग से 81 मिलियन टन कम है। इससे निपटने के लिए ऊर्जा मंत्रालय कोयले का आयात करना चाहता है जिसका मुख्य उपयोग तापीय बिजली बनाने में हो रहा है। उधर, प्रधानमंत्री की कजाखस्तान यात्रा के दौरान परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के तहत भारत को 2100 टन यूरेनियम की आपूर्ति संतोष की बात है लेकिन कोयला संकट का क्या हल निकलेगा?

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