Saturday, December 18, 2010

कैसे आए पटरी पर विद्युत व्यवस्था

प्रा य: बिजली के संकट की चर्चा महानगरों के संदर्भ में ही होती है और यह बड़ी खबर बन जाती है कि किसी पाश इलाके में पांच- छह घंटे तक बिजली गुल रही। पर देश के तमाम गांवों में इससे अधिक समय तक लगभग प्रतिदिन बिजली की अनुपस्थिति सामान्य बात है। ग्रामीण विद्युतीकरण के आंकड़े चाहे जितने भी असरदार ढंग से प्रस्तुत किए जाएं, पर सचाई यही है कि जिन गांवों में बिजली पहुंच चुकी है वहां बिजली की आपूत्तर्ि बहुत ही असंतोषजनक है। कहीं बिजली अधिकांश समय गायब रहती है तो कहीं वोल्टेज बहुत कम होती है और अक्सर बिजली ठीक उस समय नदारद हो जाती है जब उसकी अधिक जरूरत होती है। बिजली की समस्या सबसे अधिक दूर-दराज के उन पर्वतीय या रेगिस्तानी गांवों में है जहां सामान्य या मुख्य ग्रिड से बिजली पहुंचाना अधिक महंगा पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्राय: देखा गया है कि गांव की मुख्य बस्ती से अलग जो घर दूर-दूर बसे होते है व जिनमें प्राय: अधिक निर्धन व कमजोर वर्ग के परिवार रहते है, उनमें भी बिजली की पंहुच कम होती है। ग्रामीण विकेंद्रीकरण की इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए आजकल अपेक्षाकृत कम खर्च पर विकेन्द्रीकृत अक्षय ऊर्जा आधारित मॉडल की चर्चा जोर पकड़ रही है। हाल में इस मॉडल की अधिक चर्चा बिहार के संदर्भ में रही है। बिहार में जिस तरह विकास की नई पहल व रचनात्मक प्रयोगों को लेकर उम्मीद जगी है, उस संदर्भ में भी यह चर्चा महत्वपूर्ण है। बिहार में इस तरह के अक्षय ऊर्जा आधारित विकेन्द्रीकृत ऊर्जा के मॉडल को आगे बढ़ाने में पर्यावरण रक्षा से जुड़े विख्यात संगठन ग्रीनपीस की विशेष भूमिका रही है। हाल के बिहार के चुनावों से पहले इस संगठन के कायकर्ताओं ने विभिन्न राजनीतिक दलों से संपर्क कर आग्रह किया कि वे अपने घोषणा पत्रों में विकेन्द्रीकृत ऊर्जा विकास को स्थान दें ताकि दूर-दराज के गांवों में बिजली की बेहतर आपूत्तर्ि की पृष्ठभूमि तैयार हो सके। प्रसन्नता की बात है कि कुछ राजनीतिक दलों ने इस ओर समुचित ध्यान भी दिया। बिहार में इस दिशा में जो भी सार्थक कार्य पहले से हो रहे थे, उनकी जानकारी एकत्र करने व इसे प्रचारित करने का कार्य भी ग्रीनपीस ने किया है ताकि इस तरह के और प्रयासों को प्रोत्साहन मिल सके। इन प्रयासों में जहां चावल की भूसी से बिजली प्राप्त करने के सार्थक परिणाम मिले है वहीं सौर ऊर्जा के प्रयास भी शामिल है। अक्षय ऊर्जा के ाोत तो विविध तरह के हो सकते है, पर इस विकेन्द्रित मॉडल की एक विशेषता यह है कि बिजली के मुख्य ग्रिड से हटकर भी गांव अपनी बिजली की जरूरत को अक्षय ऊर्जा ाोतों से प्राप्त कर सकते है। हालांकि कुछ उपकरण बाहर से प्राप्त करने होंगे, पर इस राह पर चलकर काफी हद तक गांव बिजली के मामले में आत्म-निर्भर हो सकते है। इतना ही नहीं, अक्षय ऊर्जा उचित मूल्य पर प्राप्त हो सकती है, यह बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के आंरभिक कार्य से सिद्ध हुआ है। बिजली की असंतोषजनक स्थिति के पहले गांववासियों को डीजल पर जितनी रकम खर्च करनी पड़ती थी, यदि उससे तुलना की जाए तो अक्षय ऊर्जा ाोत से यहां प्राप्त होने वाली बिजली गांववासियों को महंगी नहीं पड़ रही है। एक अन्य महवपूर्ण मुद्दा यह है कि जिस तरह विश्व स्तर पर जलवायु बदलाव की रफ्तार कम करने के लिए एक विशाल कोष बनाने की बात चल रही है, उससे उम्मीद बंधती है कि फॉसिल ईंधन के उपयोग को कम करने वाले जो अक्षय ऊर्जा ाोत है, उनके लिए निकट भविष्य मेंे काफी सहायता मिल सकती है। यह सच है कि इस बारे में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे है और इस कारण जलवायु बदलाव की गति कम करने के उपायों के प्रसार के लिए जो धन जरूरी है, उसे मिलने में देरी हो रही है पर उम्मीद है कि जलवायु बदलाव की गंभीरता के खतरे को देखते हुए आज नहीं तो कल अक्षय ऊर्जा ाोतों के लिए काफी बड़े स्तर पर सहायता प्राप्त हो सकेगी। तब अक्षय ऊर्जा ाोतों से प्राप्त बिजली के खर्च को और कम किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ाोतों के महत्व को समझते हुए इसमें अनुसंधान कार्य जोर पकड़ रहा है। उम्मीद है कि इसके बल पर इसके खर्च को भविष्य में कम किया जा सकेगा। इस तरह अक्षय ऊर्जा ाोतों का अधिक व्यापक विस्तार संभव होगा। बिहार में जिस तरह अक्षय ऊर्जा ाोत आधारित विकेंद्रित ऊर्जा विकास मॉडल पर कार्य हुआ है इस तरह की संभावनाओं को अन्य राज्यों में भी बढ़ाया जाना चाहिए। उत्तराखंड में परंपरागत घराटों के साथ छोटे स्तर पर पनबिजली से अक्षय ऊर्जा की ऐसी संभावनाएं उत्पन्न की जा सकती है जिससे पर्यावरण का कोई नुकसान नहीं होगा। इस तरह एक ओर गांवों की आत्मनि र्भरता बढ़ेगी व दूसरी ओर जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मदद मिलेगी।

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