Saturday, December 18, 2010

परमाणु बिजली की कड़वी हकीकत

27 नवंबर को भारत का बीसवां परमाणु संयंत्र कैगा-4 क्रियाशील हुआ। अगले ही दिन एक लाख करोड़ रुपये की लागत वाली 9,900 मेगावाट की जैतापुर (महाराष्ट्र) परमाणु ऊर्जा परियोजना को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने सशर्त मंजूरी दी। भारत सरकार की योजना 2020 तक 20,000 और 2031 तक 63,000 मेगावाट परमाणु बिजली क्षमता स्थापित करने की है। दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी के साथ बिजली की मांग तेजी से बढ़ी है। यदि आठ फीसदी विकास दर को बनाए रखना है तो उसे 2017 तक वर्तमान बिजली उत्पादन से 200 फीसदी ज्यादा बिजली पैदा करना होगा। अभी तक देश का ऊर्जा आधार पनबिजली, कोयला एवं तेल-गैस जैसे परंपरागत स्त्रोत ही रहे हैं। यद्यपि देश के कुल बिजली उत्पादन में ताप बिजली का सबसे अधिक योगदान (65 फीसदी) है, लेकिन बिजली की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए ताप बिजली संयंत्रों की उत्पादन क्षमता बहुत कम है। फिर कोयले की कमी के चलते लंबे समय तक ताप बिजलीघरों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। कोयले की मांग 18 फीसदी की दर से बढ़ रही है, जबकि आपूर्ति महज छह फीसदी की दर से। फिर देश में पाया जाने वाला अधिकांश कोयला घटिया दर्जे का है, जिससे बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। यही कारण है कि हाल के महीनों में कई भारतीय कंपनियों ने विदेशों में कोयला खदानों का अधिग्रहण किया है। 26 फीसदी ऊर्जा पनबिजली परियोजनाओं से प्राप्त होती है, लेकिन नदियों में पानी की कमी, विस्थापन, पर्यावरणीय चिंताएं, जनांदोलन, मौसमी चक्र में बदलाव आदि को देखते हुए भविष्य में पनबिजली क्षमता में अधिक बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। यही कारण है कि भारत परमाणु बिजली के उत्पादन पर बल दे रहा है, लेकिन इसकी राह भी आसान नहीं है। भले ही भारत में परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने की रणनीति अपनाई जा रही हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर देखें तो परमाणु ऊर्जा उद्योग ढलान पर है। जिस तेजी से कच्चे माल की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है, उससे परमाणु ऊर्जा के लाभप्रद होने पर संदेह किया जाने लगा है। विशेषकर ऐसे समय में, जब तकनीकी विकास के चलते सौर ऊर्जा के दाम तेजी से कम हो रहे हैं। लोहा-स्टील व कंक्रीट के दामों में बढ़ोतरी, रिएक्टर के पुर्जो की सीमित आपूर्ति और कुशल पेशेवरों की कमी के चलते दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा परियोजनाएं पिछड़ती जा रही हैं। यही कारण है कि परमाणु ऊर्जा के प्रति आकर्षण कम होता जा रहा है। भारत में भी यही स्थिति है। वर्ष 1983 में भारत ने अगले दो दशकों में 10,000 मेगावाट ऊर्जा परमाणु बिजली घरों से हासिल करने की योजना बनाई थी, लेकिन 2003 तक मात्र 2,720 मेगावाट क्षमता का ही निर्माण हो पाया। इसी को देखते हुए 10,000 मेगावाट का लक्ष्य 2010 तक के लिए बढ़ा दिया गया, लेकिन अब तक परमाणु बिजली क्षमता 5,000 मेगावाट तक भी नहीं पहुंच पाई। फिर देश के परमाणु रिएक्टर अपनी क्षमता के आधे से भी कम बिजली पैदा कर रहे हैं। इसमें मुख्य बाधा ईधन यानी यूरेनियम की कमी है। यही कारण है कि पिछले पचास सालों में सरकार के खर्चीले समर्थन के बावजूद आज भी देश के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली की हिस्सेदारी तीन फीसदी से अधिक नहीं बढ़ पाई है। इसके बावजूद सरकार लंबे-चौड़े लक्ष्य निर्धारित करती जा रही है। परमाणु बिजली उत्पादन में एक गंभीर समस्या इसके कचरे का निपटान भी है। भारत को परमाणु कचरा सुरक्षित ठिकाने लगाने के लिए हर साल तीन अरब डॉलर खर्च करने होंगे। यह भी तय नहीं है कि भारत अपना परमाणु कचरा फेंकेगा कहां? गौरतलब है कि अभी तक हम प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे के सुरक्षित निपटान की प्रक्ति्रया तलाश नहीं पाए हैं तो फिर परमाणु कचरे से कैसे निपटेंगे? यह दावा भी सच से परे है कि परमाणु ऊर्जा पर्यावरण अनुकूल और साफ-सुथरी है। सच्चाई यह है कि परमाणु रिएक्टर पानी एवं वायु में करोड़ों रेडियोधर्मी समस्थानिक (आइसोटोप्स) के सूक्ष्म कण छोड़ते हैं, जिनका वायुमंडल में प्रवाह पूर्णतया अनियंत्रित है। देखा जाए तो परमाणु ऊर्जा में आया उफान 1973 के ओपेक देशों द्वारा कच्चे तेल की कीमतों में मनमानी बढ़ोतरी का परिणाम था। यही कारण था कि सत्तर व अस्सी के दशक में परमाणु बिजली की उत्पादन क्षमता में जबर्दस्त वृद्धि हुई, लेकिन 1986 में चेर्नोबिल दुर्घटना के बाद इसके विरोध में आवाजें उठने लगीं और पूरी दुनिया में परमाणु ऊर्जा विरोधी आंदोलन शुरू हो गए। फिर बढ़ती कीमतों के कारण परमाणु बिजली घर लगाना मुनाफे का सौदा नहीं रह गया। व‌र्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के अनुसार दुनिया के ज्यादातर देश परमाणु ऊर्जा उत्पादन से किनारा करते जा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में 2007 में महज 2,000 मेगावाट की बढ़ोतरी हुई। विश्व की परमाणु बिजली क्षमता इस समय 3,72,000 मेगावाट है और इसकी विकास दर आधा फीसदी है। देखा जाए तो आधा फीसदी की यह विकास दर भी स्थायी नहीं है। 1964 से अब तक दुनिया में 1,245 रिएक्टर बंद कर दिए गए। इनकी कुल उत्पादन क्षमता 3,68,000 मेगावाट थी। 1990 में विश्व के कुल ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी 16 फीसदी थी, जो 2007 में घटकर 15 फीसदी रह गई। अनेक अध्ययनों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि परमाणु ऊर्जा की लागत ताप विद्युत ऊर्जा से दुगनी है। यदि इसके लिए प्रौद्योगिकी अमेरिका से मंगाई जाएगी तो यह लागत बढ़कर तिगुनी हो जाएगी, परंतु सत्ता में बैठे हुए लोग इस कड़वी हकीकत को जानते हुए भी परमाणु ऊर्जा का राग अलाप रहे हैं। जो अमेरिका परमाणु करार को भारत के लिए बेहद जरूरी बता रहा था, उसी ने पिछले तीन दशकों में एक भी परमाणु बिजलीघर नहीं लगाया है। दूसरा उदाहरण ऑस्ट्रेलिया का है। दुनिया में सबसे ज्यादा यूरेनियम भंडार वाले ऑस्ट्रेलिया में एक भी परमाणु बिजलीघर नहीं है। स्पष्ट है कि हमें व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए पवन, सौर व छोटी जल विद्युत परियोजनाओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए। ऊर्जा के ये अक्षय माध्यम सस्ते व सर्वसुलभ हैं। साथ ही इनके विकास के लिए हमें किसी पर निर्भरता की भी जरूरत नहीं है। विकिरण जैसे खतरे का तो कोई सवाल ही नहीं है। देखा जाए तो पवन ऊर्जा से मात्र एक दशक में ही भारत 10,000 मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन करने लगा है और आज वह दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक देश है। इसी तरह का प्रयास सौर ऊर्जा के क्षेत्र में करने की जरूरत है। दुर्भाग्यवश बारहों महीने भरपूर धूप मिलने के बावजूद सौर ऊर्जा हमारी दृष्टि में अभी वह महत्व नहीं पाई है, जो परमाणु ऊर्जा को हासिल है। समग्रत: विकास के लिए ऊर्जा की बढ़ती जरूरतों के बीच परमाणु बिजली को भारत की ऊर्जा समस्या के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन अब तक अनुभव बहुत कड़वा रहा है। दरअसल, भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश को ऊर्जा सक्षमता हासिल करने के लिए अलग राह बनानी होगी। यह राह ऊर्जा के विविध स्त्रोतों जैसे कोयला, पनबिजली, सौर, भूतापीय, पवन, लहर, ज्वारीय, बायोगैस आदि का समन्वित विकास करके ही हासिल की जा सकेगी।

रमेश दुबे/ दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण, १६ दिसम्बर, पृष्ठ संख्या ९

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