Saturday, August 4, 2012

ग्रिड फेल होना सरकार की नाकामी


बेशर्मी की हद कहा जाएगा कि जिस समय उत्तरी ग्रिड के ठप हो जाने से सात राज्यों में घुप्प अंधेरा फैला था, उस दरम्यान केंद्र की संप्रग सरकार अंधेरगर्दी मचाते हुए अपने दो मंत्रियों का ओहदा बढ़ा रही थी। वैसे इस तरह की संवेदनहीनता सरकार ने कोई पहली बार नहीं दिखाई है। देश जब भी संकट से घिरा है, सरकार की नाकामी और संवेदनहीनता सतह पर दिखी है। कभी चुनाव खत्म होने पर पेट्रो पदार्थो की कीमत बढ़ाकर उसने जनता को चिढ़ाया है तो कभी उसके मंत्रियों ने महंगाई के सवाल पर अनाप-शनाप जुबान चलाकर जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। अचरज लगता है कि अंधेरे से उपजी अराजकता को दूर करने के बजाय सरकार की चिंता अपने मंत्रियों का कद बढ़ाने की क्यों रही? क्या वह दो दिन ठहर नहीं सकती थी? ठहर जाती तो क्या आसमान टूट पड़ता? ऊर्जा मंत्री रहते हुए सुशील कुमार शिंदे ने जिस तरह ग्रिड फेल होने के कारण गिनाए, उससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। आश्चर्य लगा कि जब उन्हें बिजली संकट से निपटना चाहिए था, उस वक्त वह मीडिया के सामने राज्यों की मंशा पर शक जता रहे थे। वह यह कहते सुने गए कि राज्यों ने अपने कोटे से ज्यादा बिजली ली, जिससे ग्रिड फेल हुआ। उन्होंने अहंकार का प्रदर्शन करते हुए यह भी कहा कि अमेरिका में ग्रिड फेल होने पर सुलझाने में चार दिन लग जाते हैं, जबकि उन्होंने कुछ ही घंटों में स्थिति सामान्य कर लिया। लेकिन बड़बोले शिंदे की अनुचित बयानबाजी के तत्काल बाद ही तीन और ग्रिड फेल हो गए, जिससे 22 राज्य अंधेरे में समा गए। सात सौ से अधिक रेलगाडि़यां ट्रैक पर रुक गई। मेट्रो सेवा, एयरपोर्ट, सड़क यातायात सब चरमरा गया। इमरजेंसी सेवाओं पर ग्रहण लग गया। देश की आम जनता हैरान रही कि आखिर यह सब क्या हो रहा है। जैसे-तैसे स्थिति सुधरी तो है, लेकिन इस बात से निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि इस महासंकट का दोबारा सामना नहीं करना पड़ेगा। वह इसलिए कि सरकार अभी तक उन कारणों की खोज नहीं कर पाई है, जिसकी वजह से ग्रिड फेल हुआ है। मंत्रालय द्वारा बेसिर-पैर के तर्क गिनाए जा रहे हैं। कभी संकट के लिए राज्यों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है तो कभी कोयले की कमी का रोना रोया जा रहा है। यह स्थिति भ्रम में डालने वाली है। साथ ही आशंका पैदा करती है कि इस संकट से फिर जूझना पड़ सकता है। अगर मान भी लिया जाए कि कुछ राज्यों ने तय कोटे से अधिक बिजली का दोहन किया है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। देश में जब भी सूखे की स्थिति बनी है या अतिरिक्त बिजली की मांग बढ़ी है, राज्यों ने अपने तय कोटे से अधिक बिजली लेना जरूरी समझा है। केंद्र सरकार को भी सूखे की स्थिति में अतिरिक्त बिजली देने की व्यवस्था बनानी चाहिए। अगर केंद्र सरकार को लग रहा है कि राज्यों ने अधिक बिजली लेकर स्थिति को विस्फोटक बनाया है तो उसके लिए भी सर्वाधिक केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है, न कि राज्य सरकारें। आखिर उसने निगरानी तंत्र को कमजोर क्यों होने दिया? ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में बिजली क्षमता का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था, उसे हासिल करने में सरकार बुरी तरह विफल हुई है। गौरतलब है कि बिजली क्षमता का लक्ष्य 78 हजार मेगावाट निर्धारित किया गया था, जिसे बाद में घटाकर 63 हजार मेगावाट किया गया। किंतु सरकार को लगा कि इस लक्ष्य को हासिल करना भी कठिन है तो केवल 54,800 मेगावाट की नई क्षमता ही सृजित की जा सकी। इसके अलावा सरकार की लचर नीति के कारण उसका महत्वकांक्षी अल्ट्रा मेगावाट प्रोजेक्ट भी अधर में लटक गया है। यह कटु सत्य है कि कोई भी राज्य बिजली संयंत्र लगाना नहीं चाहता है। सबकी निर्भरता नेशनल ग्रिड पर आ टिकी है। कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि भारत में 22000 मेगावाट बिजली सिर्फ इसलिए नहीं बन पा रही है कि उसके लिए पर्याप्त मात्रा में ईधन नहीं है। बिजली परियोजनाओं को कोयला लिंकेज नहीं मिल रहा है। बिजली उत्पादन में कोयले का अकाल है तो उसके लिए केंद्र की संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुए कोयला खदानों के आवंटन की गड़बडि़यां जिम्मेदार हैं। अब सरकार बिजली प्लांटों को कोयले की आपूर्ति कैसे सुनिश्चित करेगी, यह एक बड़ा सवाल है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि गैस आधारित बिजली प्लांटों का भविष्य भी यहां अंधकारपूर्ण ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार हालिया संकट से सबक लेगी या इसका राजनीतिक फायदा उठाकर अपनी संवेदनहीनता को और पुष्ट करेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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