Saturday, August 4, 2012

भारी पड़ता अंधाधुंध इस्तेमाल


बीती 29 जुलाई की रात ढाई बजे उत्तरी ग्रिड के फेल हो जाने के कारण देश की 30 करोड़ जनसंख्या वाले नौ राज्य अंधकार में डूब गए। फैक्टि्रयां, रेल और यहां तक कि दिल्ली की मेट्रो ट्रेन भी ठहर गई। जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। मानसून के चलते गर्मी थोड़ी कम थी, फिर भी लोगों की मुश्किलें कम नहीं थी। हमें छोटे से पड़ोसी देश भूटान से आनन-फानन में बिजली लेकर अत्यावश्यक सुविधाओं को जैसे-तैसे बहाल करना पड़ा। लेकिन 31 जुलाई को एक बार फिर यही समस्या दोहराई गई और इस बार एक नहीं, तीन ग्रिड फेल हुए, जिसकी चपेट में ंदेश के 22 राज्य आ गए और 60 करोड़ की जनता उससे प्रभावित हुई। बिजली के इस संकट के लिए राज्य केंद्र सरकार पर और केंद्र राज्यों पर जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। केंद्र की ओर से कहा जा रहा है कि कुछ राज्य अपने कोटे से अधिक बिजली ले रहे थे। इसलिए बिजली आपूर्ति ठप हुई। गलती किसी की भी हो, बिजली देश की जीवन रेखा है। इसका ठप होना जनजीवन को प्रभावित तो करता ही है, यह देश के लिए अपमानजनक भी है। ऐसी परिस्थितियों में यह कहा जा रहा है कि चूंकि देश में बिजली की आपूर्ति आवश्यकता से कम है, इसलिए इस प्रकार की घटनाएं दोबारा कभी भी हो सकती हैं। दरअसल, पिछले कुछ समय से बिजली के अपर्याप्त उत्पादन से निजात पाने के लिए इस क्षेत्र में आवश्यक निवेश नहीं हो रहा है। मांग और आपूर्ति पिछली चार पंचवर्षीय योजनाओं में बिजली उत्पादन लक्षित क्षमता से हर बार लगभग आधा ही रहता रहा है। पिछली चार योजनाओं की कुल लक्षित वृद्धि 2 लाख 12 हजार मेगावाट की थी, जबकि बिजली की का उत्पादन रहा मात्र 1 लाख 8 हजार मेगावाट। इसी तरह ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में घोषित लक्ष्य 1 लाख मेगावाट का था, जबकि वास्तविक वृद्धि 50 हजार मेगावाट ही अनुमानित है। वर्ष 2011-12 के दौरान देश में बिजली की आपूर्ति और मांग में 9.3 प्रतिशत का अंतर था, जबकि सर्वाधिक मांग (पीक ऑवर में) और आपूर्ति में 12.9 प्रतिशत का अंतर था। बिजली की मांग लगातार 9 से 10 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ती जा रही है, जबकि इसकी आपूर्ति मात्र 7.7 प्रतिशत से ही बढ़ रही है। इसका मतलब है कि मांग और आपूर्ति में अंतर भी लगातार बढ़ रहा है। देश में बिजली की आपूर्ति बढ़ाने के के लिए तरह-तरह के उपाय हो रहे हैं, जिनमें से कोयले, जल और न्यूक्लियर प्लांट से बिजली बनाने के उपाय प्रमुख हैं। बिजली के उत्पादन के साथ जुड़े हुए पर्यावरण के विषय हैं। यदि जल से बिजली बनानी हो तो नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में खलल पड़ता है। पिछले कुछ समय से गंगा पर अवरोध खड़े करते हुए बिजली बनाने की कवायद पर लगातार विरोध हो रहा है और हाल ही में पर्यावरणविदों के तर्को के आधार पर इनमें से कुछ विकल्पों पर प्रतिबंध भी लगाया गया। कोयले या तेल से बिजली बनाने पर दूषित गैसें निकलती हैं, जो मानव जीवन के लिए खतरनाक है। जापान में आए भूकंप के कारण न्यूक्लियर संयंत्रों में हुए रिसाव का हवाला देते हुए देश में न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाए जाने का विरोध किया जा रहा है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में न्यूक्लियर पॉवर प्लांट को लेकर बड़े पैमाने पर विरोध से सभी वाकिफ हैं। ऐसे सभी विरोधों में ठोस तर्क भी हैं। क्या कुछ यूनिट बिजली प्राप्त करने के लिए हम गंगा की पवित्रता की बलि दे सकते हैं? क्या न्यूक्लियर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए रेडियोधर्मिता के खतरों को ओढ़ सकते हैं? ऐसे कुछ सवाल देश के सामने खड़े हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि बिजली की मांग कितनी है? वास्तव में यह जानना जरूरी है कि बिजली का उपभोग किस काम के लिए और किसके द्वारा ज्यादा हो रहा है। बिजली की 35 प्रतिशत मांग उद्योग, 21 प्रतिशत मांग कृषि, 28 प्रतिशत मांग घरेलू उपयोग और करीब 9 प्रतिशत मांग व्यावसायिक कार्यो के लिए होती है। बड़े उद्योग और व्यवसाय समूह खुद भी अपनी आवश्यकता के लिए अपने पॉवर प्लांट लगाकर बिजली का उत्पादन करते हैं। गौरतलब है कि बिजली का उपयोग कृषि उद्योग और सेवा क्षेत्र जैसे उत्पादक कार्यो के लिए महज 2.7 प्रतिशत की दर से ही बढ़ रहा है, जबकि गैरउत्पादक कार्यो मसलन, अमीरों की विलासिता (एयर कंडीशनर आदि) के लिए बिजली का उपभोग कहीं ज्यादा गति से बढ़ रहा है। इसके चलते कुल उपभोग की वृद्धि दर लगभग 8 प्रतिशत की है। सरकारी बयानों के अनुसार विभिन्न राज्यों द्वारा नेशनल ग्रिड से बिजली की निकासी उनके कोटे से कहीं ज्यादा हो रही थी। मसलन, हरियाणा अपने तयशुदा कोटे से 18 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 31 प्रतिशत और राजस्थान 18 प्रतिशत ज्यादा बिजली ले रहे थे। 29-30 जुलाई की रात हरियाणा द्वारा 25.5 प्रतिशत अतिरिक्त बिजली की निकासी हो रही थी। बताया जा रहा है कि इसी के चलते उत्तरी ग्रिड फेल हुई। ताकतवर राज्यों द्वारा अपने कोटे से ज्यादा बिजली की निकासी का यह पहला मामला नहीं है। बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि विलासिता के लिए बिजली का लगातार बढ़ता उपभोग भी इस संकट के लिए जिम्मेदार है। भारी पड़ती विलासिता आज देश में लगभग 7 हजार करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन प्रतिमाह होता है। इसके चलते प्रति व्यक्ति बिजली का उपभोग लगभग 58 यूनिट मासिक है। देश में अभी लगभग 18 करोड़ लोग (करीब चार करोड़ गृहस्थ) बिजली की सुविधा से वंचित हैं। इनके परिवार को एक बल्ब और एक पंखा भी नसीब हो जाए तो गनीमत हैं। ऐसे में कुल अतिरिक्त बिजली की जरूरत 120 करोड़ यूनिट की ही होगी। ऐसे में अगर 7 हजार करोड़ यूनिट बिजली में से मात्र दो प्रतिशत से भी कम बिजली इस वंचित वर्ग को मिल जाए तो पूरे देश में सबको बिजली की सुविधा उपलब्ध हो जाएगी। इसका मतलब यह है कि हमारी बारहवीं पंचवर्षीय योजना में जो एक लाख मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है, वह गरीबों और वंचितों के लिए तो कतई नहीं है। हर बार बिजली का बढ़ता उत्पादन उन लोगों के ही काम आता है, जो इसे खरीदने की क्षमता रखते हैं। इसलिए जब बिजली उत्पादन के लिए किसी भी हद तक प्रकृति के शोषण की बात आती है, चाहे नदियों पर बांध बनाकर या रेडियोधर्मिता के खतरे से लैस आणविक ऊर्जा संयंत्र लगाकर अथवा दूषित गैसों के विसर्जन के खतरे के साथ कोयले या गैस से बिजली बनाकर तो वह इस देश के आम आदमी के लिए नहीं है, बल्कि बिजली संकट को दूर करने के बहाने यह अमीरों को विलासिता के संसाधान मुहैया कराने के लिए है। यह सही है कि पिछले कुछ दिनों में ग्रिड के फेल हो जाने से देश की छवि को धक्का लगा है, लेकिन हमें विचार करना होगा कि यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है, क्योंकि हम बिजली का उपभोग हद से ज्यादा कर रहे हैं। जैसे-जैसे अमीरों की विलासिता बढ़ रही है, वैसे-वैसे बिजली संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसे में आने वाले समय में पर्यावरणीय संकटों से देश को बचाना मुश्किल होगा। ऐसे में कुछ लोग जो अंक गणितीय तरीके से मांग के अनुसार बिजली के उत्पादन को बढ़ाने के लिए निवेश बढ़ाने की बात कर रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि बिजली उत्पादन की प्राकृतिक सीमाएं हैं। बिजली संकट की यह स्थिति न आए, इसके के लिए सरकार को भी सौर ऊर्जा जैसे विकल्पों पर ध्यान देना होगा। कभी खत्म न होने वाले इस विकल्प को अपनाने के लिए लोगों को न सिर्फ प्रोत्साहित करना होगा, बल्कि अनुदान भी देना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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