Wednesday, June 15, 2011

बिहार में बिजली संकट दूर होने के आसार नहीं


बिजली की लगातार बढ़ती मांग को देखते हुए बिहार को केंद्रीय पूल का कोटा बढ़ने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। इससे राज्य में बिजली का संकट अभी कुछ वर्षो तक और बरकरार रहेगा। सेंट्रल इलेक्टि्रसिटी अथॉरिटी (सीईए) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देश में बिजली की कुल मांग की तुलना में उत्पादन 10.3 प्रतिशत कम हो रहा है। ऐसे में बिहार को केंद्रीय पूल से अतिरिक्त बिजली दे पाना संभव नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक बिहार बिजली की सर्वाधिक किल्लत वाला राज्य है। यहां मांग से करीब 28.5 प्रतिशत बिजली कम आपूर्ति होती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले दिनों केंद्रीय पूल से बिजली का कोटा बढ़ाने की मांग को लेकर ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे से मिले थे। केंद्र सरकार की मजबूरी को देखकर ही नीतीश भूटान की बिजली परियोजनाओं में बिहार को हिस्सेदारी देने की मांग को लेकर विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से भी मिले थे। सीईए की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 96.8 करोड़ यूनिट बिजली की मांग के बावजूद 69 करोड़ यूनिट की आपूर्ति हो रही है। व्यस्त समय में राज्य में बिजली की मांग 2123 मेगावाट है। जबकि आपूर्ति 1400 मेगावाट के करीब है। रोजाना 723 मेगावाट यानी 28.7 प्रतिशत कम बिजली की आपूर्ति हो रही है। बिजली किल्लत के मामले में बिहार देश में सबसे आगे है। मध्य प्रदेश में मांग से 19.1 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 16.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 9.6, जम्मू और कश्मीर में 9.4, तमिलनाडु में 8.4 और कर्नाटक में 7.6 प्रतिशत कम बिजली की आपूर्ति होती है। रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादा बिजली की किल्लत पश्चिमी और दक्षिण राज्यों में हैं। दक्षिणी क्षेत्र में 14.5 प्रतिशत और पश्चिमी क्षेत्र के राज्यों में 11.2 प्रतिशत बिजली की कम आपूर्ति हो रही है। पूर्वी क्षेत्र के राज्यों में 11 प्रतिशत बिजली की कम आपूर्ति होने की संभावना का आकलन किया गया है। चूंकि पूर्वी राज्यों में उड़ीसा बिजली के मामले में आत्मनिर्भर है। इसलिए किल्लत सिर्फ बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ज्यादा है। दक्षिण क्षेत्र के राज्यों में तमिलनाडु की स्थिति भी अत्यंत ही खराब है। तमिलनाडु तो रोजाना 50 करोड़ रुपये की बिजली खरीद रहा है। इसके बावजूद उसे प्रत्येक दिन 1500 मेगावाट की कमी को पूरा करने के लिए लोड शेडिंग करना पड़ रहा है।


बिजली बिना बेहाल देश


बिजली के लिए पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है। बिजली के इस गहराते संकट के लिए केंद्र राज्य को और राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए अब तक किए गए सभी उपाय नाकाफी रहे हैं। भविष्य में भी बिजली संकट के समाधान की कोई संभावना नहीं हैं, बल्कि देश के ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे खुद यह चेतावनी दे रहे हैं कि बिजली का असली संकट अब से दो साल बाद होगा। ऊर्जा मंत्री के अनुसार बिजली समवर्ती सूची में है और केंद्र सरकार सिर्फ पूरक हो सकती है। बिजली के स्रोत खोजना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। सरकार के अपने आकलनों के अनुसार बिजली की मांग और आपूर्ति अंतर बढ़ता जा रहा है। देश में वितरण के दौरान क्षति का औसत 30 फीसदी से भी अधिक है। इसका नतीजा एक ओर नागरिक सुविधाओं और सेवाओं की बदहाली के रूप में आ रहा है तो दूसरी ओर उद्योग-धंधे बीमार होते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय के अनुसार भारत का ऊर्जा क्षेत्र कई गंभीर खामियों का शिकार है। इसमें यह चिंता भी व्यक्त की गई है कि यदि ये गड़बडि़यां शीघ्र दूर नहीं की गई तो देश के सकल घरेलू उत्पाद को लेकर सरकार ने जो लक्ष्य तय किया है वह पूरा नहीं हो सकेगा बिजली संकट लगातार बढ़ रहा है और साल दर साल स्थितियां और बिगड़ रही हैं। उदाहरण के लिए पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान सरकार बिजली उत्पादन क्षमता में वृद्धि के लक्ष्य का केवल 50 से 60 प्रतिशत हिस्सा ही पूरा कर सकी है। चालू पंचवर्षीय योजना के साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद कहा जा सकता है कि इस बार भी प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं है। बिजली परियोजनाओं पर जिस ढंग से काम हो रहा है उसे देखते हुए यह लक्ष्य कब पूरा होगा कोई नहीं जानता। आज सबके लिए बिजली एक चुनावी नारा बनकर रह गया है। देश में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत सिर्फ 700 किलोवाट है जो कि अमेरिका की खपत का बारहवां हिस्सा है। यह चीन के मुकाबले आधा है और वैश्विक औसत का एक चौथाई, जिसमें कई विकासशील देश भी शामिल हैं। भारत के 40 करोड़ लोगों तक बिजली की कोई पहुंच नहीं है। प्रति व्यक्ति खपत को बढ़ाने का भारत का इरादा इसीलिए शायद दूर की कौड़ी है। हमारे यहां बिजली की कीमतें भी बहुत ज्यादा है। औसतन भारत में बिजली की कीमत पांच रुपये प्रति यूनिट है। इसकी तुलना में ब्राजील में यह तीन रुपये, बोलिविया में ढाई रुपये और अर्जेटीना में चार रुपये से कम है। आम धारणा यह है कि भारत में बिजली पर भारी सब्सिडी दी जाती है। भारत में ऊर्जा की कीमत कई विकासशील देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। कई राज्यों ने तो फिक्स चार्ज सहित कई तरह के उपकर भी लगा दिए है जिससे उपभोक्ताओं को बिजली की ज्यादा कीमत देनी पड़ती है। इसके बावजूद बिजली की नियमित आपूर्ति का कोई भरोसा नहीं है। बिजली के संकट से देश का औद्योगिक विकास तो प्रभावित हुआ ही है जनता में भी सरकार के खिलाफ आक्रोश है, लेकिन यूपीए की सरकार पिछले सात साल के दौरान ऊर्जा क्षेत्र के अपने लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहा है। वृहद ऊर्जा परियोजनाओं की घोषणा के बावजूद देश ऊर्जा के उत्पादन और वितरण दोनों क्षेत्रों में कमी का सामना कर रहा है। देश के ऊर्जा क्षेत्र के बारे में केपीएमजी का श्वेत पत्र कहता है कि भारत की मौजूदा स्थापित क्षमता जहां लगभग 152 गीगावाट्स की है वहीं अंतरक्षेत्रीय संप्रेषण क्षमता सिर्फ 20 गीगावाट्स की है जो स्थापित क्षमता का मात्र 13 प्रतिशत है। वर्तमान में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य बहुत ऊंचा है जो 78,700 मेगावाट का रखा गया है। हालांकि बीते दो वर्षो में कोई कामयाबी नहीं मिली है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित केंद्रीय मंत्रियों के समूह की एक उपसमिति ने बिजली क्षेत्र की स्थिति को सुधारने के लिए कई सिफारिशें की थीं, लेकिन इस उपसमिति की पहली पंाच सिफारिशों में से चार को दो साल बाद भी पूरा नहीं किया जा सका है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोटेंक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में गठित इस उपसमिति की अधिकतर सिफारिशें बिजली परियोजनाओं को बैंकों से आसानी से और पर्याप्त मात्रा में कर्ज उपलब्ध कराने से संबंधित हैं। बिजली मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि डेढ़ वर्ष बाद भी वित्त मंत्रालय इन सिफारिशों को अमलीजामा नहीं पहना सका है। इसका नतीजा यह होगा कि आगामी 12वीं योजना के दौरान लगाए जाने वाले बिजली प्लांटों के लिए भी जरूरी राशि का इंतजाम होने में देरी होगी। 11वीं योजना के दौरान भी यही हुआ था। फंड का इंतजाम नहीं होने की वजह से कई बिजली परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ पाईं। जाहिर है कि वर्ष 2012 में शुरू होने वाली 12वीं योजना के दौरान एक लाख मेगावाट अतिरिक्त बिजली बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। यह देश की नौ फीसदी विकास की दर को हासिल करने के लिए जरूरी बताया गया है। पिछले पंद्रह सालों में बिजली क्षेत्र में सुधार के जितने भी उपाय किए गए सब अधूरे साबित हुए हैं। चालू ग्यारहवीं योजना का हाल भी कुछ ऐसा ही है जिसमें पहले तो 78 हजार मेगावाट की क्षमता का लक्ष्य रखा गया परन्तु बाद में इसमें तकरीबन 10 हजार मेगावाट की कमी करनी पड़ी। इस लक्ष्य का 60 फीसदी हासिल कर लिया जाए तो बड़ी बात होगी। बिजली क्षमता की स्थापना के लिए अल्ट्रामेगा परियोजनाओं का जो शिगूफा छोड़ा गया था वह भी कामयाब नहीं हुआ। हालांकि कहने को कोई एक दर्जन अल्ट्रामेगा परियोजनाओं की योजना बनाई जा चुकी है, लेकिन इनमें से दो-तीन को छोड शायद ही किसी में कोई काम हुआ है। बाकी परियोजनाएं धन के अभाव में अटकी हुई हैं। ये परियोजनाएं 1000 मेगावाट से ऊपर की हैं और चार करोड़ प्रति मेगावाट क्षमता के निवेश के हिसाब से प्रत्येक परियोजना के लिए कम से कम 4000 करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत है। इतना बड़ा निवेश करना किसी एक कंपनी के बस में नहीं है। यह देखकर सरकार ने हाल में अल्ट्रामेगा परियोजना के नियमों में बदलाव किया है और अब एक परियोजना पूरी होने के बाद ही कंपनियों को दूसरी परियोजना को शुरू करने की अनुमति मिलेगी। गुजरात को छोड़कर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा सहित कई राज्यों के बिजली बोर्ड भारी घाटे में है। बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण की व्यवस्था लगभग पंगु हो गई है। अधिसंख्य राज्य सरकारें भी बिजली क्षेत्र की किसी समस्या का समाधान नहीं कर पा रही है। यहां तक वे बकाया बिजली बिलों की वसूली भी नहीं कर पा रही हैं, जिसमें अधिकांश बकाया बड़े उद्यमियों और राज्य के ही सरकारी विभागों का है। बिजली की सप्लाई में सुधार के प्रयास में भी राज्य सरकारें लगभग असफल सिद्ध हो रही हैं। इस स्थिति में सुधार के लिए सरकार को गंभीरता से विचार करना होग। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Wednesday, June 1, 2011

परमाणु ऊर्जा की दरकार


महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाले परमाणु ऊर्जा संयंत्र को लेकर सरकार और स्थानीय लोगों में काफी मतभेद है। स्थानीय लोग और कुछ बुद्धिजीवी इस संयंत्र के विरोध में प्रदर्शन भी कर रहे हैं। यह बात शायद कई लोगों को अजीब लग रही होगी कि जापान में आए भूकंप के कारण परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में हुए विस्फोटों के बाद भी दुनिया में बड़े पैमाने पर नए परमाणु संयंत्रों का निर्माण करने की बात की जा रही है। जापान उन देशों का अगुवा रहा है, जिन्होंने 1970 वाले दशक के तेल संकट की रामबाण दवा परमाणु ऊर्जा को राष्ट्रीय प्राथमिकता देने की पहल की। आज उसके पास 55 परमाणु बिजलीघर हैं। देश की एक तिहाई बिजली वे ही पैदा करते हैं। भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोदकर जैतापुर परमाणु ऊर्जा परियोजना को जरूरी ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प है। टेक्नोलॉजी काफी विकसित और सुरक्षित बनती जा रही है। इसकी बदौलत परमाणु बिजलीघरों में दुर्घटनाओं के जोखिम बहुत कम हो गए हैं और भविष्य में और भी कम हो जाएंगे। आजकल दुनिया-भर में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए अलग-अलग चरणों पर 62 परमाणु रियक्टरों का निर्माण किया जा रहा है। इसके अलावा भविष्य में 300 से अधिक नए रिक्टरों के निर्माण के लिए परियोजनाओं पर चर्चा की जा रही है। रूस, चीन, भारत और दुनिया के कुछ अन्य देशों में राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा व्यवस्था के आधुनिकीकरण के कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। भारत, वियतनाम, तुर्की और बुल्गारिया में जो परमाणु बिजलीघर बनाए जा रहे हैं, रूस उनके निर्माण में सहायता कर रहा है। चीन और रूस जैसे अग्रणी देशों ने इस बात की स्पष्ट रूप से घोषणा की है कि वे जापान में घटी दुर्घटना के बावजूद नई पीढ़ी के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण के अपने कार्यक्रमों का त्याग नहीं करेंगे। देश में वर्तमान ऊर्जा की स्थिति देखने से पता चलता है कि थर्मल पॉवर प्लांट कुल ऊर्जा उत्पादन में 64.6 प्रतिशत योग देते हैं, जबकि जल-विद्युत 24.6 प्रतिशत, परमाणु ऊर्जा 2.8 प्रतिशत और पवन ऊर्जा का एक प्रतिशत योगदान रहता है। देश में उत्पादित कुल ऊर्जा की मात्रा का लगभग 23 प्रतिशत वितरण में ही नष्ट हो जाता है। हालांकि वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है। तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से परमाणु ऊर्जा और जल विद्युत के प्रति आकर्षण और बढ़ गया है। भारत-अमेरिका के साथ परमाणु समझौता कर चुका है। न्यूक्लियर ऊर्जा को गैर कार्बन उत्सर्जक मानते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं। न्यूक्लियर ऊर्जा उत्पादन के लिए हमें गुणवत्ता युक्त कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी, जिससे हमारे परमाणु संयंत्र अबाध रूप से काम करते रहें। वर्तमान में भारत में 14 परमाणु बिजलीघर है, जिनके माध्यम से 2550 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है और नौ अन्य रिएक्टर निर्माणाधीन हैं। इन निर्माणाधीन रिएक्टरों के जरिए अतिरिक्त 4092 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन होगा। देश की ऊर्जा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हमें एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। अत्यधिक उपभोग और बढ़ती जनसंख्या से देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए जैतापुर जैसे परमाणु संयंत्रों का लगना आवश्यक है। अलबत्ता इन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में उच्च स्तर के सुरक्षा मानकों का कड़ाई से पालन किया जाए, जिससे भविष्य में संभावित किसी भी तरह की प्राकृतिक आपदा से इन्हें बचाया जा सके और जनहानि की आशंका भी न रहे। सुरक्षा मानक इतने कड़े हों कि संयंत्र भूकंप और सुनामी को झेल पाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)