Monday, April 25, 2011

बिजली अनियमितता पर नहीं है कंट्रोल


फिर न्यूक्लियर प्लांट का विरोध


तीन साल पहले देश में इस मसले पर खूब बहस हुई थी। विरोध के स्वर लेफ्ट पार्टियों की तरफ से उठ रहे थे। उनका कहना था कि बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूक्लियर पावर का ऑप्शन ठीक नहीं है। उनके मुताबिक यह खर्चीला ऑप्शन है जिसे हम अमेरिका के कहने पर अपना रहे हैं। लेकिन लेफ्ट के तर्क को नहीं माना गया। कांग्रेस ने न्यूक्लियर पावर के मसले पर वामपंथियों से नाता तोड़ना बेहतर समझा। फिर लोकसभा चुनाव हुए। जनता की अदालत में कांग्रेस की जीत हुई और लेफ्ट बुरी तरह से हार गया। ऐसा लगा कि न्यूक्लियर पावर के मसले पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन बहस फिर से शुरू हो गई है। इस बार विरोध लेफ्ट या राइट की तरफ से नहीं हो रहा है। विरोध की वजह इस बार जापान है। जापान के फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट में दुर्घटना के बाद न्यूक्लियर पावर की अवधारणा पर ही सवाल उठने लगे हैं। फुकुशिमा के दाइची न्यूक्लियर प्लांट को इस तरह से बनाया गया था कि वह रिक्टर स्केल पर 8 की तीव्रता वाले भूकंप को सह सकता था। साथ ही 5 मीटर लंबी सुनामी की लहरों को बिना किसी नुकसान के झेल पाने की भी इसकी क्षमता थी। लेकिन प्रकृति कहां किसी प्लानिंग को मानती है। रिक्टर स्केल पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप के बाद फुकुशिमा दाइची प्लांट के अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे हैं। फुकुशिमा की दुर्घटना के बाद पूरी दुनिया में न्यूक्लियर पावर की सुरक्षा पर बहस तेज हो गई है। न्यूक्लियर टेक्नालॉजी के उपयोग को खत्म करने की मांग को लेकर मार्च में यूरोप के कई देशों में प्रदर्शन हुए। जर्मनी में यह प्रदर्शन इतना मुखर था कि वहां की सरकार ने 17 में से सात परमाणु रिएक्टरों को कुछ दिनों के लिए बंद करने का फैसला भी कर दिया। साथ ही चीन की सरकार ने घोषणा की है कि नए रिएक्टर लगाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। फिलहाल चीन में 25 नए न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने का काम चल रहा है। पूरी दुनिया में इतना कुछ हो रहा है, तो भारत में भी इसका असर होना तय था। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में दुनिया के सबसे बड़े जैतापुर न्यूक्लियर पावर प्लांट पर काम शुरू हो गया है। 9,900 मेगावाट वाले इस प्लांट के लिए 2,300 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हो चुका है। लेकिन हाल के दिनों में इसके खिलाफ मुहिम तेज हो गई है। विरोध करने वाले भारी भरकम दलीलें भी दे रहे हैं। जैतापुर प्लांट का विरोध करने वालों की सबसे बड़ी दलील यह है कि इस इलाके में बहुत भूकंप आते हैं। 1985 से 2005 के बीच यानी 20 साल के अंदर यहां 95 बार भूकंप आए। यह सच है कि सारे भूकंप कम तीव्रता वाले थे। लेकिन इतने सारे भूकंप के आने का मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि इस इलाके में बड़े भूकंप भी आ सकते हैं। और यदि सच में बड़े भूकंप आ जाते हैं तो फिर फुकुशिमा जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। क्या प्लांट लगाने वालों ने इस पर विचार किया है? विरोध करने वालों की दूसरी दलील यह है कि यह पूरा इलाका तटीय है, जहां 20,000 मछुआरों की जिंदगी समुद्री मछली के व्यापार पर निर्भर है। प्लांट बन गया तो इस पूरे इलाके में मछली मारना संभव नहीं होगा। फिर इनके जीविकोपार्जन का क्या होगा। साथ ही यह इलाका पूरी दुनिया में अल्फांसो आम के लिए प्रसिद्ध है। प्लांट बन गया तो रेडिएशन की वजह से इस उत्तम क्वालिटी के आम के खरीदार नहीं मिलेंगे। और इसका व्यापार भी खत्म हो जाएगा। जैतापुर प्लांट का विरोध करने वालों की तीसरी दलील है कि यहां फ्रांस की अरेवा कंपनी के जो रिएक्टर लग रहे हैं उसका अभी तक दुनिया में कभी टेस्ट ही नहीं हुआ है। अरेवा के इसी तरह के रिएक्टर फ्रांस और फिनलैंड में लगने थे। लेकिन सेफ्टी की वजह से उनकी स्थापना में देरी हो रही है। तो क्या हमें ऐसे रिएक्टर लगाने चाहिए जिनकी सुरक्षा का हमें पूरी तरह से भरोसा ही न हो। अभी तक हमारे देश में जितने भी न्यूक्लियर प्लांट लगे हैं, उन सबका विकास देश में ही हुआ था। पहली बार हम किसी विदेशी कंपनी से रिएक्टर इंपोर्ट कर रहे हैं। जैतापुर के लिए फ्रांस की अरेवा से करार हुआ है, तो दूसरे प्लांट के लिए अमेरिका और रूस की कंपनियों से रिएक्टर खरीदने की बात हो रही है। विरोधियों की दलील तो हमने जान ली। अब जरा यह देखें कि जैतापुर प्लांट के पक्ष में बोलने वाले क्या कह रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी दलील है कि 9 परसेंट की रफ्तार से तरक्की करने वाले देश को बहुत बिजली की जरूरत है। कोयला और कच्चे तेल से बिजली पैदा करना खर्चीला भी है और उससे पर्यावरण को भी भारी नुकसान होता है। भारत में पैदा होने वाली हानिकारक ग्रीनहाउस गैस का 36 परसेंट से ज्यादा पावर प्लांट से ही निकलता है। देश की बिजली की जरूरतों पूरा करना हो और पर्यावरण को भी बचाना हो, तो न्यूक्लियर पावर से बेहतर विकल्प हो ही नहीं सकता है। फिलहाल देश के कुल बिजली उत्पादन का महज तीन परसेंट हिस्सा न्यूक्लियर प्लांट से आता है। इसको अगले 8 साल में छह परसेंट करने की योजना है। इसके लिए अगले कुछ साल में 44 नए न्यूक्लियर प्लांट लगाने की योजना है। सरकार की योजना है कि 2050 तक देश की कुल बिजली जरूरत का 25 परसेंट हिस्सा न्यूक्लियर प्लांट से पूरा हो। जैतापुर का यह 9,900 मेगावाट वाला प्रोजेक्ट भी उसी दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है। इसीलिए इस प्रोजेक्ट के पैरोकार लाख विरोध के बावजूद जैतापुर प्लांट पर काम रोकना नहीं चाहते हैं। अब सवाल यह है कि देश हित में क्या है? जैतापुर प्लांट का रुकना या फिर इसका आगे बढ़ना। हमारे लिए अच्छी बात यह है कि हमारे यहां परमाणु रिएक्टर तब लग रहे हैं जब दुनिया ने पिछली दुर्घटनाओं से बहुत कुछ सीख लिया है और टेक्नालॉजी में उसी हिसाब से सुधार कर लिया है। लेकिन किसी भी फैसले को लेते वक्त इस बात का खयाल रखना जरूरी है कि न्यूक्लियर प्लांट की सुरक्षा में किसी प्रकार की कोताही न हो।


Friday, April 22, 2011

बिरसिंहपुर में ठप हो सकता है उत्पादन


नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने दिया वैकल्पिक ऊर्जा प्रयोग पर जोर


जापान के परमाणु संकट से सबक लेते हुए नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने बृहस्पतिवार को भारत और चीन समेत विश्व भर से परमाणु ऊर्जा के स्थान पर वैकल्पिक ऊर्जा के प्रयोग का आह्वान किया है। विश्व शांति के लिए नोबेल पुरस्कार जीत चुके आर्कबिशॉप डेसमंड टुटु, एडोल्फ पेरस एसक्यूवेल और रमोस होरता समेत नौ विजेताओं ने एक पत्र लिख कर यह बात कही है। यह पत्र उन 31 देशों को भेजा गया है जो वर्तमान में परमाणु ऊर्जा पर अधिक काम कर रहे है। नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने लिखा, यह समय इस बात को समझने का है कि परमाणु ऊर्जा स्वच्छ, सुरक्षित और सस्ता ऊर्जा स्रोत नहीं है। उन्होंने कहा, हमारा मानना है कि वर्तमान में अगर दुनियाभर में परमाणु ऊर्जा के प्रयोग को रोक दिया तो भविष्य में पूरी दुनिया शांति से और सुरक्षित रह सकेगी। परमाणु ऊर्जा के दूरगामी प्रभाव को बताते हुए उन्होंने कहा कि तमाम देश इस खतरनाक और महंगी ऊर्जा कोउत्पादित करने में लगे हैं जबकि इससे सस्ते और दीर्घकालिक स्रोत ज्यादा आसानी से उपलब्ध हैं। वर्तमान में विश्व भर में चार सौ से ज्यादा परमाणु संयंत्र हैं। इनमें कई प्राकृतिक आपदा के कारण जोखिम वाले स्थानों पर हैं। यह विश्व के कुल ऊर्जा का केवल सात प्रतिशत उत्पादन ही करते हैं। उन्होंने कहा, आप मिलकर इस ऊर्जा स्रोत को दूसरे सुरक्षित स्रोतों से बदल दें तो हमें परमाणु मुक्त भविष्य मिल सकता है|
फुकुशिमा संयंत्र के 20 किलोमीटर दायरे में जाने पर प्रतिबंध लगाया
जापान सरकार ने गुरुवार को क्षतिग्रस्त फुकुशिमा परमाणु बिजली संयंत्र के चारों तरफ 20 किलोमीटर के दायरे में लोगों के जाने पर पाबंदी लगा दी। प्रधानमंत्री नाओतो कान ने फुकुशिमा प्रांत का दौरा किया। समाचार एजेंसी आरआईए नोवोस्ती ने बताया कि अधिकारियों ने स्थानीय समय आधी रात से संयंत्र के 20 किलोमीटर के दायरे में सभी अनधिकृत प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है। मुख्य कैबिनेट सचिव यूकिओ इदानो ने कहा कि लोगों को विकिरण के खतरे और लूटपाट से बचाने के उद्देश्य से यह कदम उठाया गया है। ज्ञात हो कि गत 12 मार्च को संयंत्र के दायरे से लोगों को हटाए जाने के बाद घर लौटे लोगों को पुलिस गुरुवार तक कानूनी रूप से उन्हें इलाके में प्रवेश करने से रोक नहीं पाई थी। अधिकारी इन क्षेत्रों के निवासियों को थोड़े समय के लिए घर भेजने की योजना तैयार करने वाले हैं ताकि वे वहां से अपनी जरूरत की वस्तुओं को ला सकें। देश में 11 मार्च को आए नौ तीव्रता वाले भूकंप और सुनामी से फुकुशिमा परमाणु बिजली संयंत्र गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गया। संयंत्र के रिएक्टरों से हो रहे रेडियोधर्मी रिसाव पर काबू पाने के लिए संयंत्र के अधिकारी संघर्ष कर रहे हैं। संयंत्र के दायरे में रहने वाले करीब 80,000 लोगों को यहां से निकालकर राहत शिविरों में रखा गया है|

जैतापुर में हंगामा है क्यों बरपा


पिछले बीस वर्षो में जैतापुर ने भूकंप के 92 झटके झेले हैं। देश को इस एटॉमिक पॉवर प्लांट के कारण करीब दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में बनाए जा रहे 9,900 मेगावाट की उत्पादन क्षमता वाले इस प्रस्तावित प्लांट को लेकर महाराष्ट्र के रत्नागिरी में तनाव की स्थिति है। पुलिस फायरिंग में अभी तक एक युवक की मौत हो चुकी है। बंद के दौरान प्रदर्शनकारियों ने एक बस में आग लगा दी और अस्पताल में तोड़फोड़ की। महाराष्ट्र विधानसभा में भी यह मामला गूंजा। सरकार अगर इसी तरह अपना दमन चक्र चलाती रही तो जैतापुर को दूसरा नंदीग्राम बनते देर नहीं लगेगी। जापान में सुनामी और भूकंप के बाद पॉवर प्लांट फुकुशिमा की जो हालत हुई और उससे जो बरबादी हुई, उससे भारतीयों ने सबक लिया है। अब जैतापुर में प्रस्तावित पॉवर प्लांट का विरोध हो रहा है। लोग आंदोलन कर रहे हैं। सरकार है कि झुकना नहीं चाहती, आंदोलनकारी अड़े रहना चाहते हैं। इस पॉवर प्लांट का विरोध करने वाले पर्यावरणविद् कहते हैं कि यह प्लांट जिस स्थान पर बनाया जाना है, वह स्थल तीन नंबर भूकंपग्रस्त क्षेत्र में आता है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों के अनुसार, इस स्थल पर 1985 से 2005 तक भूकंप के 92 झटके आ चुके हैं। इसमें से अधिकांश झटके तो 1993 में लगे थे। इसकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.2 थी। जापान से सबक लेते हुए सरकार ने जैतापुर के पॉवर प्लांट के डिजाइन में बदलाव करते हुए ऊंचा प्लेटफॉर्म बनाने का निर्णय लिया है। इस पर पर्यावरणविद् कहते हैं कि जैतापुर परमाणु संयंत्र को भूकंप से कोई नुकसान नहीं होगा, यह समझना मूर्खता होगी। यदि जैतापुर में भूकंप का झटका लगेगा तो संभव है कि यह पूरा इलाका ही मैदान बन जाए। यही नहीं, इसका असर मायानगरी मुंबई तक हो सकता है। जैतापुर में जो परमाणु संयंत्र बनाया जा रहा है, वह भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व का सबसे बड़ा एटॉमिक पॉवर स्टेशन होगा। इसकी कुल क्षमता 9900 मेगावॉट बिजली पैदा करने की होगी। मुख्यमंत्री पद संभालते ही अशोक चौहान ने यह तय कर लिया कि इस पॉवर प्लांट के विरोध को हमेशा-हमेशा के लिए कुचल दिया जाए। सरकार ने हरसंभव कोशिश की, लेकिन विरोध बढ़ता ही रहा। पॉवर प्लांट के लिए किसानों की जमीन हस्तगत की जाने लगी। परिणामस्वरूप आंदोलनकारी किसानों पर पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। इसके खिलाफ किसानों ने भी पुलिस थाना जला दिया। इस घटना ने 90 साल पहले के चौरा-चौरी कांड की याद दिला दी। इसके बाद भी किसानों की जमीन को जबर्दस्ती हथियाने की प्रवृत्ति में कोई तब्दीली नहीं आई। जब जापान में फुकुशिमा पॉवर प्लांट की हालत खराब हुई, तब हमारे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि अब समय आ गया है कि हम भी जैतापुर पॉवर प्लांट के बारे में पुनर्विचार करें। इसके बाद उन पर केंद्र से दबाव आ गया। इसलिए उन्हें अपने बयान में तब्दीली करनी पड़ी। एक सप्ताह बाद ही पर्यावरण मंत्री के सुर बदल गए। अब वे कहने लगे कि उक्त प्लांट की चिंता पर्यावरण मंत्रालय की नहीं, बल्कि न्यूक्लियर पॉवर कारपोरेशन की है। न्यूक्लियर पॉवर कारपोरेशन के अध्यक्ष श्रेयांस कुमार जैन ने पत्रकारों के सामने यह कह दिया कि यह पॉवर प्लांट सूनामी और भूकंप के झटके आसानी से सह लेगा, लेकिन जब उनसे यह पूछा गया कि क्या यह संयंत्र 9 की तीव्रता वाले भूकंप को सह सकता है, तब उन्होंने इस गंभीर प्रश्न का मखौल उड़ाते हुए कहा कि भारत में 9 की तीव्रता का भूकंप आ ही नहीं सकता। पूरे विश्व में अभी तक तीन प्रकार के परमाणु ऊर्जा संयंत्र तैयार हो रहे हैं। जापान का फुकुशिमा रिएक्टर लाइट वॉटर टेक्नालॉजी पर आधारित है। उसमें परमाणु ईधन को ठंडा करने के लिए सामान्य पानी का उपयोग किया जाता है। हमारे देश में काकरापार, तारापुर आदि स्थानों पर जो एटॉमिक रिएक्टर तैयार किए गए हैं, वे हैवी वॉटर की टेक्नालॉजी पर आधारित है। इसमें जिस पानी का इस्तेमाल किया जाता है, उसमें शामिल ऑक्सीजन का परमाणु सामान्य परमाणु की अपेक्षा अधिक भारी होता है। जैतापुर में जो परमाणु संयंत्र स्थापित किया जा रहा है, वह प्रेशराइज्ड वॉटर की टेक्नॉलॉजी पर आधारित है। यह टेक्नालॉजी एकदम आधुनिक है। अभी इसे सुरक्षा की कसौटी में कसना बाकी है। पूरी दुनिया में इस प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल करने वाला यह पहला संयंत्र है। इस तरह का परमाणु रियेक्टर अभी तक किसी भी देश में काम नहीं कर रहा है। फ्रांस की कंपनी अरेवा भारत में इस तकनीक का इस्तेमाल कर एक प्रयोग करना चाहती है। जैतापुर में जिस एटामिक रिएक्टर का निर्माण किया जा रहा है, उसके खर्च के बारे में सरकार ने अभी तक अधिकृत जानकारी नहीं दी है। फिनलैंड में जो 1650 मेगावॉट क्षमता का रिएक्टर बनने को है, उस पर 5.7 अरब यूरो के खर्च की संभावना है। चीन जो रिएक्टर खरीदने वाला है, वह 5 अरब यूरो का है। हम यदि इन दोनों की तुलना करें तो 1650 मेगावॉट के एक रिएक्टर का खर्च 5.3 अरब यूरो होता है। जैतापुर में ऐसे 6 रिएक्टर तैयार किए जा रहे हैं, जिसकी लागत 193 लाख करोड़ रुपये हो सकती है। फ्रांस के सहयोग से जैतापुर में बनाए जाने वाले परमाणु बिजली संयंत्र के पक्ष में जो सबसे मजबूत दलील दी जा रही है, वह यह है कि इस प्रोजेक्ट के अस्तित्व में आ जाने से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी। महाराष्ट्र में इस वक्त 16 हजार मेगावाट बिजली की खपत है, जिसमें 13,500 मेगावाट बिजली अन्य स्त्रोतों से हासिल की जाती है। इसमें राज्य सरकार की इकाई महाजेनको का योगदान रहता है और करीब 1500 मेगावाट बिजली बाहर से खरीदी जाती है। इसका नतीजा होता है कि महाराष्ट्र के अधिकतर इलाकों में रोज छह से आठ घंटे तक बिजली की कटौती की जाती है। कुछ वर्षो पहले तो स्थिति और भी खराब थी, जब राज्य में हर दिन 18 घंटे बिजली की कटौती होती थी। जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र यदि काम करना शुरू कर दे तो बिजली की कमी झेल रहे राज्य को बड़ी राहत मिलेगी, लेकिन जापान में आए भूकंप और सूनामी के बाद फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट से रेडिएशन लीक के बढ़ते खतरे के बीच जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र को लेकर जो डर बढ़ रहा है, उसे दूर करने की पुख्ता व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं दे रही है। भारत के न्यूक्लियर प्लांट तीसरी पीढ़ी के रिएक्टरों और तकनीकी से लैस हैं, जो सूनामी और भूकंप जैसे प्राकृतिक हादसों की स्थिति से निपटने में कारगर हैं। तमिलनाडु में कलपक्कम प्लांट सूनामी प्रभावित क्षेत्र में आता है। यहां 260 टन और 625 टन पानी की क्षमता वाले मजबूत कूलिंग सिस्टम हैं। अगर कोई अनहोनी होती है तो इससे निपटने के लिए पूरा वक्त (48 घंटे) मिलता है। जापान में न्यूक्लियर पॉवर प्लांट्स की सुरक्षा के लिए कई उपाय किए गए हैं। ये प्लांट इस तरह सुरक्षित बनाए जाते हैं कि किसी दुर्घटना की स्थिति में आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर खराब असर नहीं पड़े। यहां के परमाणु रिएक्टर इस तरीके से बनाए जाते हैं कि भूकंप आने की स्थिति में ये खुद बंद हो जाते हैं, जिससे किसी तरह की दुर्घटना की कोई आशंका ही न रहे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

परमाणु योजनाओं पर सवाल


परमाणु संयंत्रों के स्वरूप पर लेखक की टिप्पणी
जापान की घटनाओं के बाद भारत भी अपने परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा-समीक्षा करने को मजबूर हुआ है। सुरक्षा-समीक्षा का मसला इसलिए भी ज्यादा अहम हो गया है क्योंकि भारत अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के विस्तार के लिए भिन्न-भिन्न तकनीकों वाले विदेशी रिएक्टर खरीदने जा रहा है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिख कर परमाणु बिजली की सुरक्षा पर अपने मंत्रालय और जनता की चिंताओं से अवगत कराया है और इस बात पर जोर दिया है कि भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम के विस्तार के लिए बिना आजमाए विदेशी रिएक्टरों के बजाय अपने देश में बने हुए हेवी वॉटर रिएक्टरों को ही आधार बनाना चाहिए। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि परमाणु ऊर्जा पर निगरानी रखने वाले भारतीय विशेषज्ञ भारत में ही बने रिएक्टरों के संचालन में अधिक दक्षता रखते हैं। सुनामी के बाद उत्पन्न फुकुशीमा संकट से निपटने में जापान की असफलता के बाद कोंकण तट पर जैतापुर में फें्रच रिएक्टरों के लिए दी गई मंजूरी पर पर नए सवाल खड़े हो गए हैं। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में पर्यावरण मंत्री ने इस बात पर खास तौर से ध्यान खींचा है कि भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में बहुत ज्यादा तकनीकी विविधता उत्पन्न हो गई है। देश-निर्मित हेवी वॉटर रिएक्टरों, फास्ट ब्रीड रिएक्टरों और उन्नत थोरियम-आधारित रिएक्टरों के अलावा भारत फें्रच, रूसी और अमेरिकी डिजाइन के लाइट वॉटर रिएक्टर आयातित करने की योजना बना रहा है। जापान का सबसे बड़ा सबक है कि परमाणु कार्यक्रम में एक कठोर नियमन-व्यवस्था बहुत जरूरी है। लेकिन रिएक्टरों में इतनी तकनीकी विविधता को देखते हुए एक कारगर नियमन व्यवस्था निर्मित करना बहुत मुश्किल काम है। पर्यावरण मंत्री का सुझाव है कि भारत को अपने रिएक्टरों का मानकीकरण करना चाहिए। 700 मेगावॉट क्षमता के हेवी वॉटर रिएक्टर अपना कर उसे 1000 मेगावॉट तक अपग्रेड करना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा रिएक्टर है, जिसमे भारतीय रेगुलेटरों को तकनीकी दक्षता हासिल है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के यूरेनियम भंडार पिछले पांच वर्षो में बढ़ कर दोगुने हो गए हैं। अत: हेवी वॉटर रिएक्टरों को अपनाना सबसे अच्छा विकल्प है। जैतापुर परियोजना की आलोचना का एक प्रमुख बिंदु यह है कि फें्रच रिएक्टरों का डिजाइन परखा हुआ नहीं है। दूसरी बात यह है कि इन रिएक्टरों से बनने वाली बिजली भी बहुत महंगी पड़ेगी। जैतापुर जैसे बहु-रिएक्टर परिसरों में प्रत्येक रिएक्टर के लिए वर्तमान सहभागी सपोर्ट सिस्टम के बजाय अपना अलग सपोर्ट सिस्टम रखने का सुझाव दिया जा रहा है। एक सुझाव यह भी है कि परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए आत्मनिर्भर सपोर्ट सिस्टम की स्थापना का जिम्मा पर्यावरण मंत्रालय के बजाय परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड का होना चाहिए। परमाणु नियमन बोर्ड अभी परमाणु ऊर्जा विभाग के अंतर्गत है और अक्सर उसकी यह कह कर आलोचना होती है कि यह स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करता। परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड को पूरी तरह स्वतंत्र और वैधानिक बनाने के लिए संसद द्वारा कानून पास किया जाना चाहिए। भारत में परमाणु सुरक्षा की मौजूदा स्थिति की विस्तृत और गहन समीक्षा भी जरूरी है। इस समीक्षा में सरकारी परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान के वैज्ञानिकों के अलावा स्वतंत्र वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएं भी ली जानी चाहिए। भारत सरकार इस समय फुकुशीमा जैसे बड़े परमाणु रिएक्टर परिसरों को बढ़ावा दे रही है। लेकिन इन परिसरों पर आगे काम तभी हो सकता है, जब हमारे सामने फुकुशीमा की पूरी तस्वीर सामने आ जाए। सिर्फ फुकुशीमा की पूरी रिपोर्ट ही काफी नहीं है। हमें लोगों को परमाणु ऊर्जा की सुरक्षा के बारे में भी भरोसा दिलाना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Tuesday, April 19, 2011

रूस बना रहा चलता-फिरता परमाणु संयंत्र!


 जापान के परमाणु संकट ने विश्व के कई देशों को अपने परमाणु संयंत्र निर्माण की योजनाओं पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया है। ऐसे में रूस अपनी धरती से दूर, समुद्र में तैरने और महासागरों में दूरदराज क्षेत्रों में ले जा सकने वाला विश्व का पहला परमाणु संयंत्र बनाने की तैयारी कर रहा है। इस संयंत्र का नाम रूसी वैज्ञानिक मिखाइल लोमोनोसोव के नाम पर एकेडमिक लोमोनोसोव रखा गया है। सेंट पीटर्सबर्ग बाल्टिस्की शिपयार्ड के प्रमुख आंद्रेय फोमिचेव ने कहा, हम चिंतित नहीं हैं क्योंकि हर संभव आपात स्थिति की जांच कर ली गई है। इस संयंत्र में दो छोटे रिएक्टर होंगे जो 70 मेगा वाट बिजली पैदा करेंगे। रूस ऐसे सात और परमाणु संयंत्र बनाने की योजना में है। आंद्रेय ने कहा, छोटे संयंत्रों को दूर तक ले जाया सकता है जिससे वहां महंगे पावर ग्रिड के बिना ही उर्जा की जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा। इस संयंत्र की लागत पांच सौ 50 मिलियन डॉलर (लगभग 24 अरब 38 करोड़ रुपये) है। रूस ऐसे संयंत्रों के निर्यात की योजना भी बना रहा है। समर्थन : रूस समेत कई देश परमाणु संयंत्रों को छोटा करने के पक्ष में हैं, जिन्हें सुविधानुसार कहीं भी लगाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएइए) ने कहा है कि 2030 तक विश्व भर में 40 से 90 छोटे संयंत्रों का प्रयोग शुरू हो जाएगा। आलोचना : परमाणु ऊर्जा के आलोचकों ने चेतावनी दी है कि रूस की योजना घातक साबित हो सकती है। यह आतंकवाद को भी बढ़ावा दे सकती है। पेरिस के स्वतंत्र परमाणु ऊर्जा सलाहकार माइकल शेनीडर ने कहा, आप सुरक्षित परमाणु रिएक्टर बनाने का दावा नहीं कर सकते। तैरते और दूरदराज ले जा सकने वाले संयंत्र से तो खतरा कई गुना बढ़ सकता है। यह पूरी तरह से बेतुका है। रूस के पूर्व परमाणु ऊर्जा उप मंत्री बुलात निगमातुलिन ने कहा, प्रशांत महासागर में जहां सुनामी का काफी खतरा है, परमाणु संयंत्र लगाना पूरी तरह से पागलपन है|

Monday, April 18, 2011

ऊर्जा और पर्यावरण की चुनौती


ऊर्जा का महत्व किसी राष्ट्र के लिए शरीर में रक्त की तरह है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी के साथ महत्वपूर्ण यह भी है कि ऊर्जा की आपूर्ति चाहे जिस रूप में हो, पर्यावरण की कीमत पर नहीं हो सकती जिस पर समूचे मानव समुदाय का अस्तित्व तथा सभी हित निर्भर हैं और जिसके लिए राष्ट्र-राज्य होता है। ऊर्जा की बढ़ती जरूरत और पर्यावरण को न्यूनतम स्तर तक संरक्षित रखने की चुनौती के इन्हीं पाटों में संतुलन के उपायों पर देश की ऊर्जा और पर्यावरण नीति को दो-चार होना पड़ रहा है। इसका हल जल्द नहीं खोजा गया तो आर्थिक विकास की गति तो प्रभावित होगी ही, आम जन-जीवन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। आज ऊर्जा के लिए विश्व में कोयले के सिवा कोई सुरक्षित विकल्प नजर नहीं आ रहा है। केंद्र ने परमाणु ऊर्जा को विकल्प मानते हुए अमेरिका से समझौता तो किया लेकिन जापान में भूकम्प से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में पैदा त्रासदी के बाद सरकार की चिंता बढ़ गई है। यद्यपि वह परमाणु ऊर्जा के लिए लालसावान पहले से रही है और उसने रूस, फ्रांस, आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी इसके खातिर सहयोग पाने की सम्भावनाओं की तलाश की पर वह इसके खतरों से आशंकित भी रही है। इसी का नतीजा है कि आज उसको संसद के अगले सत्र में कोयला नियामक बिल पेश करने की घोषणा करनी पड़ रही है। सरकार भले कह रही हो कि इसका मकसद कोयला क्षेत्र में होने वाली छोटी-मोटी अनियमितताओं को दूर करना व कोल इंडिया के कार्य संचालन को दुरुस्त करना है किंतु असल बात पर्यावरण है जिसे संरक्षित करने का पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीड़ा उठा रखा है। इसके तहत कोयला खदानों को लेकर देश के 65 प्रतिशत भाग को 'गो' और 35 प्रतिशत भाग को 'नो-गो' क्षेत्र घोषित किया गया है। इससे दो मंत्रालयों में तकरार है। कोयला मंत्री सिर्फ 10 फीसद हिस्से को 'गो' एरिया के तहत चाहते हैं। रमेश के हठ से कोयले के 200 से अधिक ब्लॉकों को मंजूरी नहीं मिल पा रही है और कोयला कमी से ऊर्जा संकट की आशंका बन गई है। सरकारी प्रबंधों से ऐसा नहीं हुआ तो बिजली महंगाने के अलावा चारा नहीं रह जाएगा। कोल इंडिया के खनन से पर्यावरण के लिए अनेक चुनौतियां बढ़ी हैं। इसके मद्देनजर पर्यावरणमंत्री का रवैया तकरे की दृष्टि से सही है फिर भी इसने देश में कोयला उत्पादन वृद्धि दर 2012 तक शून्य पर पहुंच जाने की स्थिति बना दी है। 2009-10 में कोयले का उत्पादन 600 मिलियन टन की मांग के मुकाबले 70 मिलियन टन कम था। इस साल 603 मिलियन टन उत्पादन का अनुमान है पर मांग से 81 मिलियन टन कम है। इससे निपटने के लिए ऊर्जा मंत्रालय कोयले का आयात करना चाहता है जिसका मुख्य उपयोग तापीय बिजली बनाने में हो रहा है। उधर, प्रधानमंत्री की कजाखस्तान यात्रा के दौरान परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के तहत भारत को 2100 टन यूरेनियम की आपूर्ति संतोष की बात है लेकिन कोयला संकट का क्या हल निकलेगा?

Saturday, April 16, 2011

परमाणु सुरक्षा पर दो बिल लाएगा भारत


भूकंप और सुनामी के बाद परमाणु खतरे से जूझ रहे जापान के हालात से सबक लेते हुए भारत अपने असैन्य परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा बढ़ाने की तैयारी में है। इसके लिए संसद के मानसून सत्र में दो विधेयक पेश किए जाएंगे। नाम न बताने की शर्त पर एक अधिकारी ने शुक्रवार को बताया कि इस प्रस्तावित विधेयक में भारत के असैन्य परमाणु संयंत्रों के अचूक और विश्वसनीय सुरक्षा उपाय करने की बात शामिल होगी। उस अधिकारी ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ कजाखिस्तान की राजधानी अस्ताना की यात्रा कर रहे संवाददाताओं को यह जानकारी दी। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अस्ताना में असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे। अधिकारी ने बताया कि परमाणु सुरक्षा विधेयक संसद में पेश किया जाएगा और उसे अध्ययन के लिए स्थाई समिति के पास भेजा जाएगा। उसने कहा कि परमाणु सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय मानक स्तर को पूरा करना होगा। इस पर विचार-विमर्श के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की स्थायी समिति सर्वाधिक उपयुक्त है। अधिकारी ने बताया कि एक अन्य विधेयक जो पेश किया जाने वाला है उसमें परमाणु ऊर्जा कानून में संशोधन का प्रस्ताव है, जिससे परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (एइआरबी) को स्वतंत्र वैधानिक बोर्ड का दर्जा दिया जा सके। जापान के फुकुशिमा परमाणु हादसे को देखते हुए भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग ने चार टास्क फोर्स गठित किए हैं। एक टास्कफोर्स ने सलाह दी है कि परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त उपाय किए जाएं। भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम (एनपीसीआइएल) और परमाणु ऊर्जा विभाग इस पर आने वाले अतिरिक्त खर्च को देखेंगे। जहां जरूरत पड़ेगी सरकार उसे पूरा करेगी। भारत में अभी बीस परमाणु ऊर्जा संयंत्र काम कर रहे हैं और लगभग आधा दर्जन लगाए जा रहे हैं|

Tuesday, April 12, 2011

दुनिया का पहला तैरता बिजलीघर ऋषिकेश में


ऋषिकेश स्थित चीला पावर हाउस की शक्ति नहर में रविवार को हाइड्रो-इलेक्टि्रक इंजीनियरों ने पावर सेक्टर में एक इतिहास रच दिया। बिजली उत्पादन की नई तकनीक पर चीला शक्ति नहर पर चल रहा प्रयोग सफल हो गया। इंजीनियरों ने नहर में लगाई गई दो टरबाइनों से 30 किलोवाट बिजली पैदा कर विश्व के पहले तैरते हुए बिजली घर की परिकल्पना को मूर्तरूप दिया। महज 15 मिनट में 30 किलोवाट बिजली उत्पादन से उत्साहित इंजीनियरों ने अगले छह महीने तक परीक्षण जारी रखने का निर्णय किया है। ऋषिकेश से चीला विद्युत गृह को जाने वाली चीला शक्ति नहर में बीते कुछ माह से एक प्राईवेट कंपनी डीएलजेड पावर प्रोजेक्ट द्वारा विद्युत उत्पादन की एक नई तकनीक पर कार्य चल रहा था। इस तकनीक में पानी को ऊंचाई से टरबाइन पर नहीं गिराकर टरबाइन को सीधे नहर के अंदर लगाया जाना था। इसके पीछे इंजीनियरों की सोच पानी की गतिज ऊर्जा के इस्तेमाल से टरबाइन घुमाकर बिजली पैदा करने की थी। इंजीनियरों ने चीला शक्ति नहर में सर्वे कर कुछ ऐसे स्थान चिन्हित किए, जहां पर पानी की गतिज ऊर्जा बाकी क्षेत्रों के मुकाबले सर्वाधिक है। जनवरी में नदी में टरबाइन लगाने का कार्य शुरू हुआ, जो बीते सप्ताह ही पूर्ण हुआ। अमेरिका और कनाडा से आए इंजीनियरों की देखरेख में चल रही इस परियोजना का सबसे महत्वपूर्ण चरण नहर में टरबाइन फिट करने का कार्य शनिवार को पूर्ण हो चुका था। रविवार को टरबाइनें घूमी तो इंजीनियरों के चेहरों पर खुशी छा गई। प्रोजेक्ट इंजीनियर नितिन मित्तल ने बताया कि नहर में 25-25 किलोवॉट की दो टरबाइनें लगाई गई, जिनसे कुल 50 किलोवॉट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। रविवार को पहली बार दोनों टरबाइन चालू कर 15 मिनट तक चलाया गया जिससे 30 किलोवाट बिजली पैदा की गई। यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में नहर का जलस्तर मूल स्तर से करीब डेढ़ मीटर नीचे है। प्रथम चरण के परिणाम उत्साहजनक हैं, मगर अगले छह महीने तक प्रयोग व बदलाव जारी रहेंगे। इसके अलावा विभिन्न प्रकार की टरबाइन के नए-नए डिजाइनों पर का प्रयोग कर यह देखा जाएगा कि कौन सी टरबाइन अधिक आसानी से बिजली उत्पादन में सहायक होगी। इसके बाद ही इस योजना को पूर्ण व असल परिणामों की गणना हो सकेगी|

Thursday, April 7, 2011

ऊर्जा का अपव्यय रोकना जरूरी


चेर्नोबिल और फुकुशिमा के परमाणु संयंत्र में हुए विस्फोट के बाद हुई तबाही के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सबके सामने है कि आखिर बिजली और पेट्रोल से चलने वाले संयंत्रों की क्या वाकई इतनी जरूरत है। देखा जाए तो अपनी काहिली के कारण ही हम विनाश को न्योता दे रहे हैं। ऐसे एक नहीं अनेक काम हैं जो हम अपनी शारीरिक ऊर्जा से कर सकते हैं, लेकिन इसे अनदेखा करते हुए अन्य संसाधनों का उपयोग करते हैं। यदि हम ऊर्जा का सही उपयोग करें तो पानी में तैरने वाले बम यानी ऊर्जा संयंत्रों की शायद आवश्यकता ही न पड़े। जो काम हम सहज रूप से कर सकते हैं, उसके लिए हम बिजली, पेट्रोल या फिर डीजल से चलने वाले यंत्रों का इस्तेमाल कर विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। ऊर्जा के साधन के रूप में मानव जाति परंपरागत रूप से कोयला, गैस, तेल, जल आदि के बिना ऊर्जा संग्रहित करती आई है। प्राचीन भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए पशुओं का बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता था। पशुओं से प्राप्त ऊर्जा खत्म नहीं होती थी, जिसके बदले पशुओं को केवल चारा ही दिया जाता था। इस ऊर्जा को आयात भी नहीं करना पड़ता था। इसके लिए विदेशी कंपनियों पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ता था। फलस्वरूप में पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को किसी प्रकार का खतरा नहीं था। इतना ही नहीं यह ऊर्जा काफी सस्ती भी है। यदि सरकार ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को विकसित करना चाहती है तो उसे पशुओं को अनदेखा नहीं करना चाहिए, क्योंकि पशुबल के उपयोग से हम ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकते हैं। ऊर्जा हमारी रोज की आवश्यकता है। जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए और देश का उत्पादन बढ़ाने के लिए हमें ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा के बिना न तो व्यक्ति और न ही देश का विकास हो पाएगा। हमारे सामने ऊर्जा के उत्पादन के अनेक विकल्प हैं। इसमें से हमें ऐसे विकल्पों पर विचार करना चाहिए जो सस्ते, सुरक्षित और पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाने वाले हों। इसके अलावा यह कभी खत्म न हो इसका भी ध्यान रखा जाना आवश्यक है। यदि ऊर्जा का उत्पादन हमारे ही घर-आंगन में हो तो इससे बढि़या बात और क्या होगी? आज ऊर्जा प्राप्त करने के लिए थर्मल पावर, तेल, गैस, कोयला, पवन ऊर्जा आदि संसाधनों का उपयोगा किया जाता है। यदि इन ऊर्जा विकल्पों पर ध्यान दिया जाए तो हमें पशुबल से प्राप्त ऊर्जा सबसे सस्ती और श्रेष्ठ साबित होगी। आज हमें अपनी कुल आवश्यकता का 30 प्रतिशत ऊर्जा पशुओं से ही प्राप्त होती है। यह बढ़ाकर 80 प्रतिशत किया जा सकता है। यहां हमें ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने से पहले इसके अपव्यय को रोकने पर भी विचार करना चाहिए। देखा जाए तो मानव शरीर भी एक पॉवर प्लांट है। हम जो कुछ भी खाते हैं वह इस पॉवर प्लांट का ईधन है। इस खुराक से हमारे शरीर में शर्करा पैदा होती है जो ऊर्जा का ही एक स्रोत है। यह ऊर्जा हमारे हाथ-पैर के उपयोग से प्राप्त की जा सकती है। हमारे रोजमर्रा के जीवन में ऐसे कई कार्य हैं, जो हम शरीर के स्नायु ऊर्जा से होते हैं। इन कार्यो के लिए पेट्रोल, गैस, बिजली या पशु का उपयोग किया जाए तो यह एक प्रकार का राष्ट्रीय व्यय है। पहले ऊर्जा के इस राष्ट्रीय व्यय पर रोक लगाई जानी चाहिए। मान लो हमें एक किमी की दूरी तय करनी है, इसके लिए हमारे पास कई विकल्प हैं। पहला विकल्प तो हमारा शरीर ही है। हमारा शरीर भी एक वाहन है। हमारे दो पाँव उसके चक्के हैं। यदि हम एक किमी चलकर जाते हैं तो हमारे शरीर की जो ऊर्जा खपत होती है तो इसके लिए हमें किसी का सहारा नहीं लेना पड़ता। इसके बजाय यदि हम वही दूरी घोड़े पर बैठकर करते हैं तो इसके लिए हमें घोड़ा पालना होगा। उसके लिए घास-चारे की व्यवस्था करनी होगी। इसलिए घोड़े की ऊर्जा से अधिक सस्ती हमारे शरीर की ऊर्जा हुई। अब हम यदि एक किमी चलने के लिए पेट्रोल या डीजल से चलने वाले वाहन का उपयोग करते हैं तो कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इन वाहनों का उत्पादन करने के लिए हमें फैक्टरियां बनानी होंगी। इसके लिए वृक्षों को काटना होगा। फैक्टरी से प्रदूषण होता है इस कारण हवा और पानी विषाक्त होता है और श्रमिकों का स्वास्थ्य बिगड़ता है। इसके अलावा वाहनों को चलाने के लिए हमें कच्चे तेल का आयात करना पड़ता है। इसके लिए हमें अनाज और सब्जी का निर्यात करना पड़ता है। कच्चे तेल को शुद्ध करने के लिए रिफाइनरियों की स्थापना करनी पड़ती है। यदि एक किमी चलने के लिए हम घोड़ा या बैल का उपयोग करें तो इसके लिए हमें न तो फैक्टरियां डालने की आवश्यकता पड़ेगी और न ही किसी प्रकार के निवेश की आवश्यकता होगी। इतना ही नहीं पशुओं से हमें गाोबर भी प्राप्त होता है जो ऊर्जा का एक सशक्त माध्यम है। इससे रसोई गैस ही नहीं, बल्कि बिजली भी बनाई जा सकती है। इन पशुओं के बजाय यदि हम साइकिल का इस्तेमाल करें तो हमारी गति बढ़ सकती है और पशुओं को पालने के खर्च से बच सकते हैं। आज हम आधुनिकता के चंगुल में जकड़ चुके हैं। हमारे शरीर के पॉवर प्लांट में पैदा होने वाली ऊर्जा का उपयोग हम घटाते जा रहे हैं और वाह्य ऊर्जा पर निर्भर होते जा रहे हैं। एक छोटा सा उदाहरण हमारे सामने है। पहले हम चटनी पीसने के लिए सिल-बट्टे का इस्तेमाल करते थे, आज उसके लिए हम मिक्सी का इस्तेमाल करते हैं। इस चटनी में वह स्वाद ही नहीं, जो सिल-बट्टे की चटनी में होता है। सिल-बट्टे में हमारी शारीरिक ऊर्जा की खपत होती थी। इसके बजाय मिक्सी के लिए बिजली की आवश्यकता होती है। ऐसे कई क्रियाकलाप थे, जिसमें हमारी शारीरिक ऊर्जा लगती थी, लेकिन अब अन्य संसाधनों का इस्तेमाल होता है। बिजली पैदा करने के लिए पॉवर प्लांट की स्थापना की जाती है। इसे चलाने के लिए नदी का प्रवाह रोककर विशाल बांध तैयार किए जाते हैं। बांधों के निर्माण के लिए जंगलों को काटना पड़ता है। यही नहीं वनवासियों को बेघर करना पड़ता है। थर्मल पॉवर प्लांट की स्थापना करने के लिए कोयले की खदानें खोदनी पड़ती हैं। इससे हवा में प्रदूषण फैलता है। परमाणु संयंत्र की स्थापना के लिए खेती की जमीनें बरबाद की जाती हैं। इससे किसान बेरोजगार होने लगते हैं। इन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में यदि कभी धमाका होता है तो विकिरण से मौत का खौफ बना रहता है। मिक्सर तो हमारी लाइफ स्टाइल का एक उदाहरण मात्र है। हम शारीरिक ऊर्जा से कई ऐसे काम कर ही सकते हैं, जिसके लिए हमें अन्य संसाधनों का मुंह ताकना पड़ता है। जिम में खर्च की जाने वाली ऊर्जा का इस्तेमाल यदि अन्य कामों में किया जाए तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा और ऊर्जा आत्मनिर्भरता भी हासिल हो जाएगी। कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन, सफाई करने के लिए वैक्यूम क्लीनर आदि यंत्र आज हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। पहले ये सब नहीं थे तब भी यह काम होते थे। पहले लोग पैदल चलकर अपने शरीर को स्वस्थ रखते थे आज शरीर में चर्बी जमा करते हैं और दवा खाते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Sunday, April 3, 2011

ताजा और खारा पानी मिलकर करेगा लाखों वाट बिजली पैदा


वैज्ञानिकों ने एक ऐसी बैटरी का ईजाद करने का दावा किया है जो मीठे और समुद्री जल के खारेपन में विभेद कर ऊर्जा पैदा कर सकती है। वैज्ञानिकों ने बताया कि जब नदी के मुहानों से पानी समुद्र में प्रवेश करता है तो इस बैटरी का इस्तेमाल करके वहां ऊर्जा संयत्र बनाया जा सकता है। ताजे पानी की कम उपलब्धता का जिक्र करते हुए शोध के नेतृत्वकर्ता ई चुई ने कहा कि वास्तव में हमारे पास अथाह समुद्री जल है और दुर्भाग्य से मीठे पानी की मात्रा बहुत कम है। बैटरी से ऊर्जा पैदा करने की संभावना जाहिर करते हुए शोधकर्ताओं ने हिसाब लगाया कि यदि दुनिया की सभी नदियों में उनकी बैटरी का इस्तेमाल किया जाए तो एक साल में करीब दो टेरावाट बिजली की आपूर्ति की जा सकती है। यह मोटे तौर पर वर्तमान में दुनिया में इस्तेमाल होने वाली कुल ऊर्जा का 13 प्रतिशत है। बैटरी अपने आप में बहुत ही सामान्य है। इसमें दो इलेक्ट्रोड हैं, एक पॉजीटिव और एक नेगेटिव, जो विद्युत चार्ज कणों या लोहे की छड़ों से युक्त एक द्रव में डूबे रहते हैं। पानी में सोडियम या क्लोरीन आयन हैं, जो आम साल्ट के घटक हैं। शुरुआत में बैटरी में मीठा पानी भरा जाता है और हल्के इलेक्टि्रक करंट के जरिए इसे चार्ज किया जाता है। बाद में मीठा पानी निकालकर इसमें समुद्री जल भरा जाता है। नैनो लेटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक समुद्री पानी में आयन मीठे जल से 60 से 100 गुना अधिक होते हैं इसलिए दोनों इलेक्ट्रोड के बीच वोल्टेज बढ़ जाती है। यह इसे बैटरी को चार्ज करने से अधिक बिजली पैदा करने में मददगार साबित होता है। चुई ने बताया कि यह वोल्टेज सोडियम और क्लोरीन आयनों की अधिकता पर निर्भर करती है। अगर आपच्स्वच्छ जल में कम वोल्टेज पर चार्ज करते हैं और फिर खारे पानी में अधिक वोल्टेज पर डिस्चार्ज करते हैं तो इसका मतलब है आप ऊर्जा हासिल करते हैं। आप जितनी ऊर्जा लगा रहे हैं आपको उससे ज्यादा प्राप्त होती है। एक बार जब डिस्चार्ज पूरा हो जाता है तो समुद्री जल बाहर निकल जाता है और उसके स्थान पर नदी का साफ पानी आ जाता है। इस तरह यह चक्र फिर से शुरू किया जा सकता है। चुई ने कहा कि यहां पर मुख्य बात यह है कि आपको इलेक्ट्रोलाइट, बैटरी में मौजूद तरल, में अदला-बदली करने की जरूरत होती है।